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मुनियों की हत्या की तथा पतञ्जलि के उस वक्तव्य से भी होती है जिसमें कहा गया है कि श्रमण और ब्राह्मणों का शाश्वतिक विरोध है ( पातञ्जल महाभाष्य ५. ४.९) । जैनशास्त्रों में पाँच प्रकार के श्रमण गिनाये हैं उनमें एक निर्ग्रन्थ श्रमण का प्रकार है - यही जैनधर्म के अनुयायी श्रमण हैं । उनका बौद्धग्रन्थों में निर्ग्रन्थ नाम से परिचय कराया गया है -- इससे इस मत की पुष्टि होती है कि जैन मुनि या यति को भगवान् बुद्ध के समय में निर्ग्रन्थ कहा जाता था और वे श्रमणों के एक वर्ग में थे ।
सारांश यह है कि वेदकाल में जैनों के पुरखे मुनि या यति में शामिल थे । उसके बाद उनका समावेश श्रमणों में हुआ और भगवान् महावीर के समय वे निर्ग्रन्थ नाम से विशेषरूप से प्रसिद्ध थे । जैन नाम जैनों की तरह बौद्धों के लिए भी प्रसिद्ध रहा है क्योंकि दोनों में जिन की आराधना समानरूप से होती थी । किन्तु भारत से बौद्धधर्म के प्रायः लोप के बाद केवल महावीर के अनुयायियों के लिए जैन नाम रह गया जो आज तक चालू है ।
तीर्थंकरों की परम्परा :
जैन - परम्परा के अनुसार इस भारतवर्ष में कालचक्र उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी में विभक्त है । प्रत्येक में छः आरे होते हैं । अभी अवसर्पिणी काल चल रहा है । इसके पूर्व उत्सर्पिणी काल था । अवसर्पिणी के समाप्त होने पर पुन: उत्सर्पिणी कालचक्र शुरू होगा । इस प्रकार अनादिकाल से यह चल रहा है और अनन्तकाल तक चलेगा । उत्सर्पिणी में सभी भाव उन्नति को प्राप्त होते हैं और अवसर्पिणी में ह्रास को । किन्तु दोनों में तीर्थंकरों का जन्म होता है । उनकी संख्या प्रत्येक में २४ की मानी गई है । तदनुसार प्रस्तुत अवसर्पिणी में अबतक ४ तीर्थंकर हो चुके हैं । अन्तिम तीर्थंकर वर्धमान महावीर हुए और प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव । इन दोनों के बीच का अन्तर असंख्य वर्ष है । अर्थात् जैन परम्परा के अनुसार ऋषभदेव का समय भारतीय ज्ञात इतिहासकाल में नहीं आता । उनके अस्तित्व - काल की यथार्थता सिद्ध करने का हमारे पास कोई साधन नहीं । अतएव हम उन्हें पौराणिक काल के अन्तर्गत ले सकते हैं । उनकी अवधि निश्चित नहीं करते । किन्तु ऋषभदेव का चरित्र जैनपुराणों में वर्णित है और उसमें जो समाज का चित्रण है वह ऐसा है कि उसे हम संस्कृति का उषःकाल कह सकते हैं । उस समाज में राजा नहीं था, लोगों को लिखना पढ़ना, खेती करना और हथियार चलाना नहीं आता था। समाज में अभी सुसंस्कृत लग्नप्रथा ने प्रवेश नहीं किया था । भाई-बहन पति-पत्नी की तरह व्यवहार करते और सन्तानोत्पत्ति होती थी । इस समाज को सुसंस्कृत बनाने का प्रारम्भ ऋषभदेव ने किया ।
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