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________________ २४० जैन साहित्य का बृहद् इतिहास महावीर दीक्षित होने के बाद बारह वर्ष पर्यन्त कठोर तपःसाधना करते रहे। इसके बाद अर्थात् बयालीस वर्ष की आयु में वीतराग हुए-केवली हुए। इसके बाद घूमते-घूमते चौदह वर्ष में श्रावस्ती नगरी में आये। इसी समय मंखलिपुत्र गोशालक भी घूमता-फिरता वहाँ आ पहुँचा। इस प्रकार गोशालक का भगवान् महावीर के साथ छप्पन वर्ष की आयु में पुनः मिलाप हुआ। इस शतक में यह भी बताया गया है कि केवली होने के पूर्व राजगृह में महावीर के चमत्कारिक प्रभाव से आकर्षित होकर जब गोशालक ने उनसे खुद अपने शिष्य के रूप में स्वीकार करने की प्रार्थना की तब वे मौन रहे। बाद में जब महावीर घूमते-घूमते कोल्लाक सन्निवेश में पहुंचे तब वह फिर उन्हें ढूंढ़ता-ढूंढ़ता वहाँ जा पहुँचा एवं उनसे पुनः अपना शिष्य बना लेने की प्रार्थना की। इस बार महावीर ने उसकी प्रार्थना स्वीकार कर ली। बाद में वे दोनों छः वर्ष तक साथ फिरते रहे। इस समय एक प्रसंग पर गोशालक ने महावीर के पास शीतलेश्या होने की बात जानी एवं तेजोलेश्या के विषय में भी जानकारी प्राप्त की। उसने महावीर से तेजोलेश्या की लब्धि प्राप्त करने का उपाय पूछा । महावीर से एतद्विषयक विधि जान कर उसने वह लब्धि प्राप्त की। बाद में वह महावीर से अलग होकर विचरने लगा। मंखलिपुत्र गोशालक जब श्रावस्ती में अपनी अनन्य उपासिका हालाहला कुम्हारिन के यहाँ ठहरा हुआ था उस समय उसकी दीक्षापर्याय चौबीस वर्ष की थी। यह दोक्षापर्याय कौन-सी समझनी चाहिए ? इस सम्बन्ध में मूल सूत्र में कोई स्पष्टीकरण नहीं है। सम्भवतः यह दीक्षापर्याय महावीर से अलग होने के बाद की है जबकि इसने अपने नये मत का प्रचार शुरू किया। इस दीक्षा-पर्याय की स्पष्टता के विषय में पं० कल्याणविजयजीकृत 'श्रमण भगवान् महावीर, देखना आवश्यक है। मालूम होता है भगवान महावीर के प्रधान शिष्य इन्द्रभूति गौतम को इस मंखपरम्परा एवं मंखलिपुत्र गोशालक का विशेष परिचय न था। इसीलिए वे भगवान् से मंखलिपुत्र का अथ से इति तक वृत्तान्त कहने की प्रार्थना करते हैं। उस समय नियतिवादी गोशालक जिन, केवली एवं अर्हत् के रूप में प्रसिद्ध था। वह आजीविक परम्परा का प्रमुख आचार्य था। उसका शिष्यपरिवार तथा उपासकवर्ग भी विशाल था। __ गोशालक के विषय में यह भी कहा गया है कि निम्नोक्त छ: दिशाचर गोशालक से मिले एवं उसके साथी के रूप में रहने लगे : शान, कलंद, कणिकार, अछिद्र, अग्निवेश्यान और गोमायुपुत्र अर्जुन । इन दिशाचरों के विषय में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002094
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size13 MB
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