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व्याख्याप्रज्ञप्ति
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देवगति :
जो असंयत है अर्थात् ऊपर-ऊपर से संयम के उग्र अनुष्ठानों का आचरण करने वाले हैं एवं भीतर से केवल मान-पूजा-प्रतिष्ठा के ही अभिलाषी है वे मर कर कम से कम भवनवासी नामक देवगति में उत्पन्न होते हैं व अधिक से अधिक अवेयक नामक विमान में देवरूप से उत्पन्न होते है। जो संयम की अधिकांशतया निर्दोष आराधना करते हैं वे कम से कम सौधर्म नामक स्वर्ग में व अधिक से अधिक सर्वार्थसिद्ध नामक विमान में देव होते हैं। जिन्होंने संयम की विराधना की हो अर्थात् संयम का दूषित ढंग से पालन किया हो । वे कम से कम भवनवासी देवयोनि में व अधिक से अधिक सौधर्म देवलोक में जन्म ग्रहण करते हैं। जो श्रावक धर्म का अधिकांशतया निर्दोष ढंग से पालन करते हैं वे कम से कम सौधर्म देवलोक में व अधिक से अधिक अच्युत विमान में देवरूप से उत्पन्न होते हैं। जिन्होंने श्रावकधर्म का दूषित ढंग से पालन किया हो वे कम से कम भवनवासी व अधिक से अधिक ज्योतिष्क देव होते हैं। जो जीव असंज्ञी है अर्थात् मन-रहित हैं वे परवशता के कारण दुःख सहन कर भवनवासी देव होते हैं अथवा वाणव्यन्तर की गति प्राप्त करते हैं । तापस लोग अर्थात् जो जिनप्रवचन का पालन करने वाले नहीं है वे घोर तप के कारण कम से कम भवनवासी एवं अधिक से अधिक ज्योतिष्क देवों को गति प्राप्त करते हैं। जो कांदपिक है अर्थात् बहुरूपादि द्वारा दूसरों को हँसाने वाले है वे केवल बाह्यरूप से जैन संयम की आराधना कर कम से कम भवनवासी एवं अधिक से अधिक सौधर्म देव होते हैं। चरक अर्थात् जोर से आवाज लगाकर भिक्षा प्राप्त करने वाले त्रिदंडी, लंगोटधारी तथा परिव्राजक अर्थात् कपिलमुनि के शिष्य कम से कम भवनवासो देव होते हैं एवं अधिक से अधिक ब्रह्मलोक नामक स्वर्ग तक पहुँचते हैं । किल्विषिक अर्थात् बाह्यतया जैन संयम की साधना करते हुए भी जो ज्ञान का, ज्ञानी का, धर्माचार्य का, साधुओं का अवर्णवाद यानि निन्दा करने वाले हैं वे कम से कम भवनवासी देव होते हैं एवं अधिक से अधिक लांतक नामक स्वर्ग तक पहुँचते हैं। जिनमार्गानुयायी तियंञ्च अर्थात् गाय, बैल, घोड़ा आदि कम से कम भवनवासी देवरूप से उत्पन्न होते हैं एवं अधिक से अधिक लांतक से भी आगे आये हुए सहस्रार नामक स्वर्ग तक जाते हैं । वत्तिकार ने बताया है कि तिर्यञ्च भी अपनी मर्यादा के अनुसार श्रावकवर्म का पालन कर सकते है। आजीविक अर्थात् आजीविक मत के अनुयायी कम से कम भवनवासी देव होते हैं एवं अधिक से अधिक सहस्रार से भी आगे आये हुए अच्युत नामक स्वगं तक जा सकते हैं । आभियोगिक अर्थात् जो जैन वेषधारी होते हुए भी मंत्र, तंत्र, वशीकरण आदि का प्रयोग करने वाले हैं, सिर पर विभूति अर्थात् वासक्षेप डालने वाले हैं, प्रतिष्ठा के लिए निमित्तशास्त्र आदि का उपयोग
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