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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
इस अंग के प्रकरणों को 'सय'-'शत' नाम दिया गया है। जैन परम्परा में 'शतक' शब्द प्रसिद्ध ही है । यह 'शत' का ही रूप है। प्रत्येक प्रकरण के अन्त में 'सयं समत्तं' ऐसा पाठ मिलता है। शत अथवा शतक में उद्देशक रूप उपविभाग है। ऐसे उपविभाग कुछ शतकों में दस-दस हैं और कुछ में इससे भी अधिक हैं । इकतालीसवें शतक में १९६ उद्देशक है। कुछ शतर्को में उद्देशकों के स्थान पर वर्ग हैं जबकि कुछ में शतनामक उपविभाग भी हैं एवं इनकी संख्या ११४ तक है। केवल पन्द्रहवें शतक में कोई उपविभाग नहीं है। शत अथवा शतक का अर्थ सो होता है। इन शतकों में सौ का कोई सम्बन्ध दृष्टिगोचर नहीं होता। यह शत अथवा शतक नाम प्रस्तुत ग्रंथ में रूढ है । कदाचित् कभी यह नाम अन्वर्थ रहा हो। इस सम्बन्ध में वृत्तिकार ने कोई विशेष स्पष्टीकरण नहीं किया है। मंगल :
भगवती के अतिरिक्त अंग अथवा अंगबाह्म किसी भी सूत्र के प्रारम्भ में मंगल का कोई विशेष पाठ उपलब्ध नहीं होता। इस पांचवें बंग के प्रारम्भ में 'नमो अरिहंताणं' आदि पाँच पद देकर शास्त्रकार ने मंगल किया है । इसके बाद नमो बंभीए लिवीए' द्वारा ब्राह्मी लिपि को भी नमस्कार किया है। तदनन्तर प्रस्तुत अंग के प्रथम शतक के उद्देशकों में वर्णित विषयों का निर्देश करनेवाली एक संग्रह-गाथा दी गई है । इस गाथा के बाद 'नमो सुअस्स' रूप एक मंगल
और आता है। इसे प्रथम शतक का मंगल कह सकते हैं। शतक के प्रारम्भ में उपोद्घात है जिसमें राजगृह नगर, गुणशिलक चैत्य, राजा श्रेणिक तथा रानी चिल्लणा का उल्लेख है । इसके बाद भगवान महावीर तथा उनके गुणों का विस्तृत वर्णन है । तदनन्तर भगवान् के प्रथम शिष्य इन्द्रभूति गौतम, उनके गुण, शरीर आदि का विस्तृत परिचय है । इसके बाद 'इंद्रभूति ने भगवान् से यों कहा' इस प्रकार के उल्लेख के साथ इस सूत्र में आने वाले प्रथम प्रश्न की शुरुआत होती है । वैसे तो इस सूत्र में अनेक प्रकार के प्रश्न व उनके उत्तर हैं किन्तु अधिक भाग स्वर्गों, सूर्यो, इन्द्रों, असुरकुमारों, असुरकुमारेन्द्रों, उनकी अग्रमहिषियों, उनके लोकपालों, नरकों आदि से सम्बन्धित है । कुछ प्रश्न एक ही समान हैं। उनके उत्तर पूर्ववत् समझ लेने का निर्देश किया गया है। कुछ स्थानों पर पन्नवणा, जीवाभिगम, नंदो आदि के समान तद्-तद् विषयों को समझ लेने का भी उल्लेख किया गया है। वैसे देखा जाय तो प्रथम शतक विशेष महत्त्वपूर्ण है । आगे के शतकों में किसी न किसी रूप में प्रायः प्रथम शतक के विषयों की ही चर्चा की गई है। कुछ स्थानों पर अभ्यतीथिकों के मत दिये गये हैं किन्तु उनका कोई विशेष नाम नहीं बताया गया है। इस अंग में
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