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________________ स्थानांग व समवायांग विषय - सम्बद्धता : आता है और सम्बन्ध बताते संकलनात्मक स्थानांग- समवायांग में वस्तु का निरूपण संख्या की दृष्टि से किया गया है अत: उनके अभिधेयों - प्रतिपाद्य विषयों में परस्पर सम्बद्धता होना आवश्यक नहीं है । फिर भी वृत्तिकार ने खींचतान कर यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि अमुक विषय के बाद अमुक विषय का कथन क्यों किया गया है ? उदाहरणार्थं पहले के सूत्र में जम्बूद्वीपनामक द्वीप का कथन बाद के सूत्र में भगवान् महावीरविषयक वर्णन । इन दोनों का हुए वृत्तिकार कहते हैं कि जम्बूद्वीप का यह प्ररूपण भगवान् महावीर ने किया है। अतः जम्बूद्वीप के बाद महावीर का वर्णन असम्बद्ध नहीं है । पहले के सूत्र में महावीर का वर्णन आता है और बाद के सूत्र में अनुत्तरविमान में उत्पन्न होने वाले देवों का वर्णन । इन दोनों सूत्रों में सम्बन्ध स्थापित करते हुए वृत्तिकार कहते हैं कि भगवान् महावीर निर्वाण प्राप्त कर जिस स्थान पर रहते हैं वह स्थान और अनुत्तर विमान पास-पास ही है अतः महावीर के निर्वाण के बाद अनुत्तर विमान का कथन सुसंबद्ध है । इस प्रकार वृत्तिकार ने सब सूत्रों के बीच पारस्परिक - सम्बन्ध बैठाने का भारी प्रयास किया है । वास्तव में शब्दकोश के शब्दों की भाँति इन सूत्रों में परस्पर कोई अर्थसम्बन्ध नहीं है । संख्या को दृष्टि से जो कोई भी विषय सामने आया, सबका उस संख्यावाले सूत्र में समावेश कर दिया गया । विषय - वैविध्य : स्थानांग व समवायांग दोनों में जैन प्रवचनसंमत तथ्यों के साथ ही साथ -लोकसंमत बातों का भी निरूपण है । इनके कुछ नमूने ये हैं : २१७ स्थानांग, सू० ७१ में श्रुतज्ञान के दो भेद बताये गये हैं : अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य | अंगबाह्य के पुनः दो भेद हैं : आवश्यक और आवश्यकव्यतिरिक्त । आवश्यकव्यतिरिक्त फिर दो प्रकार का है : कालिक और उत्कालिक । यहाँ उपांग नामक भेद का कोई उल्लेख नहीं हैं । इससे सिद्ध होता है कि यह भेद विशेष प्राचीन नहीं है । इसी सूत्र में अन्यत्र केवलज्ञान के अवस्था, काल आदि की दृष्टि से अनेक भेद-प्रभेद किये गये हैं । सर्वप्रथम केवलज्ञान के दो भेद बताये गये हैं: भवस्थकेवलज्ञान और सिद्धकेवलज्ञान । भवस्थकेवलज्ञान दो प्रकार का है : सयोगिभवस्थकेवलज्ञान और अयोगिभवस्थ केवलज्ञान । सयोगिभवस्थ केवलज्ञान पुनः दो प्रकार का है : प्रथमसमयसयोगिभवस्थ केवलज्ञान और अप्रथमसमय सयोगिभवस्थकेवलज्ञान अथवा चरमसमय सयोगिभवस्थ केवलज्ञान और अचरमसमयसयोगिभवस्थकेवलज्ञान | इसी प्रकार अयोगिभवस्थ केवलज्ञान के भी दो-दो भेद समझने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002094
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size13 MB
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