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________________ स्थानांग व समवायांग २१५ निवासी वासिष्ठगोत्रीय इसिगुत्त से माणवगण एवं वग्घावच्च गोत्रीय सुस्थित व सुप्रतिबद्ध से कोडिय नामक गण निकला । उपयुक्त उल्लेख में कामड्ढित गण की उत्पत्ति का कोई निर्देश नहीं है । संभव है आर्य सुहस्ती के शिष्य कामड्ढि स्थविर से ही यह भी निकला हो । कल्पसूत्र की स्थविरावली में कामड्ढतगण विषयक उल्लेख नहीं है किन्तु काढित कुलसम्बन्धी उल्लेख अवश्य है । यह कामड्ढित कुल उस वेसवाडिय - विस्वातित गण का ही एक कुल है जिसकी उत्पत्ति कामड्ढ स्थविर से बतलाई गई है । उपर्युक्त सभी गण भगवान् महावीर के निर्वाण के लगभग दो सौ वर्ष के बाद के काल के हैं । बाद के कुछ गण महावीर - निर्वाण के पांच सौ वर्ष के बाद के भी हो सकते हैं । रोहगुप्त और प्रथम दो के बाद तीसरी स्थानांग में जमालि, तिष्यगुप्त, आषाढ, अश्वमित्र, गंग, गोष्ठा माहिल इन सात निह्नवों का भी उल्लेख आता है। इनमें से अतिरिक्त सब निह्नों की उत्पत्ति भगवान् महावीर के निर्वाण के शताब्दी से लेकर छठीं शताब्दी तक के समय में हुई है । अतएव यह मानना अधिक उपयुक्त है कि इस सूत्र की अन्तिम योजना वीरनिर्वाण की छठीं शताब्दी में होने वाले किसी गीतार्थं पुरुष ने अपने समय तक की घटनाओं को पूर्व परम्परा से चली आने वाली घटनाओं के साथ मिलाकर की है। यदि ऐसा न माना जाय तो यह तो मानना ही पड़ेगा कि भगवान् महावीर के बाद घटित होने वाली उक्त सभी घटनाओं को किसी गीतार्थं स्थविर ने इस सूत्र में पीछे से जोड़ा है । इसी प्रकार समवायांग में भी ऐसी घटनाओं का उल्लेख है जो महावोर के निर्वाण के बाद में हुई हैं । उदाहरण के लिए १०० वें सूत्र में इन्द्रभूति व सुधर्मा के निर्वाण का उल्लेख । इन दोनों का निर्वाण महावीर के यह कथन कि यह सूत्र सुधर्मास्वामी ने जम्बूस्वामी को कहा, से जम्बूस्वामी ने सुना, किस अर्थ में व कहाँ तक ठीक है, विचारणीय है । ऐसी स्थिति में आगमों को ग्रंथबद्ध करने वाले आचार्य देवधिगणि क्षमाश्रमण ही यदि इन दोनों अंगों के अंतिमरूप देनेवाले माने जायें तो भी कोई हर्ज नहीं । बाद हुआ है । अतः अथवा सुधर्मास्वामी शैली : इन सूत्रों की शैली के विषय में संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि स्थानांग के प्रथम प्रकरण में एक-एक पदार्थ अथवा क्रिया आदि का निरूपण है, द्वितीय में दो-दो का, तृतीय में तीन-तीन का यावत् अन्तिम प्रकरण में दस-दस पदार्थों अथवा क्रियाओं का वर्णन है । जिस प्रकरण में एकसंख्यक वस्तु का विचार है उसका नाम एकस्थान अथवा प्रथमस्थान है । इसी प्रकार द्वितीयस्थान यावत् दशमस्थान के विषय में समझना चाहिए। इस प्रकार स्थानांग में दस स्थान, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002094
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size13 MB
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