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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास हो गई है, उपलब्ध पुस्तकें अशुद्ध हैं तथा ये सूत्र अति गम्भीर हैं । ऐसी स्थिति में उनकी व्याख्या में मतभेद होना सम्भव है ।
इस ग्रन्थ की जो पदसंख्या बताई गई है उसे देखते हुए यह मालूम होता है कि काल आदि के दोष से यह ग्रन्थ बहुत ही छोटा हो गया है । लेखन ठीक न होने से ग्रन्थ छिन्न-भिन्न हो गया प्रतीत होता है । ऐसी स्थिति में इसकी व्याख्या करने में तत्पर मेरे जैसा दुबुद्धि क्या कर सकता है ? फिर योग्य गुरु का विरह है अर्थात् शास्त्रों का अध्ययन-अध्यापन करने वाले उत्तम गुरु की परम्परा नष्ट हो गई । गणघरों के वचन छिन्न-भिन्न हो गये । उन खण्डित वचनों का आधार लेकर प्राचीन मुनिवरों ने शास्त्रसंयोजना की। अतः सम्भव है प्रस्तुत व्याख्या में कहीं अर्थ आदि की भिन्नता हो गई हो ।
अभयदेवसूरि को इन दोनों ग्रन्थों की व्याख्या करने में जिस कठिनाई का अनुभव हुआ है उसका हूबहू चित्रण उपर्युक्त पद्यों में उपलब्ध है। जिस युग में शास्त्रों के प्रामाण्य के विषय में शंका होते हुए भी एक अक्षर भी बोलना कठिन था उस युग में वृत्तिकार इससे अधिक क्या लिख सकता था? स्थानांग आदि को देखने से यह स्पष्ट मालूम होता है कि सम्यग्दृष्टिसम्पन्न गीतार्थ पुरुषों ने पूर्व परम्परा से चली आने वाली सूत्रसामग्री में महावीर के निर्वाण के बाद यत्र-तत्र वृद्धि-हानि की है जिसका कि उन्हें पूरा अधिकार था।
उदाहरण के लिए स्थानांग के नवें अध्ययन के तृतीय उद्देशक में भगवान् महावीर के नौ गणों के नाम आते हैं। ये नाम इस प्रकार हैं : गोदासगण, उत्तरबलिस्सहगण, उद्देहगण, चारणगण, उडुवातितगण, विस्सवातितगण, कामड्ढितगण, माणवगण और कोडितगण । कल्पसूत्र की स्थविरावली में इन गणों की उत्पत्ति इस प्रकार बतलाई है :
प्राचीन गोत्रीय आर्य भद्रबाहु के चार स्थविर शिष्य थे जिनमें से एक का नाम गोदास था। इन काश्यप गोत्रीय गोदास स्थविर से गोदास नामक गण की उत्पत्ति हुई। एलावच्च गोत्रीय आर्य महागिरि के आठ स्थविर शिष्य थे। इनमें से एक का नाम उत्तरबलिस्सह था। इनसे उत्तरबलिस्सह नामक गण निकला। वासिष्ठगोत्रीय आर्य सुहस्ती के बारह स्थविर शिष्य थे जिनमें से एक का नाम आर्यरोहण था । इन्हीं काश्पगोत्रीय रोहण से उद्देहगण निकला। उन्हीं गुरु के शिष्य हारितगोत्रीय सिरगुत्त से चारणगण की उत्पत्ति हुई, भारद्वाजगोत्रीय भदद्जस से उडुवाडियगण उत्पन्न हुआ एवं कुंडिल ( कुंडलि अथा कुडिल) गोत्रीय कामड्ढि स्थविर से वेसवाडिय गण निकला। इसी प्रकार काकंदी नगरी
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