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________________ २०६ जैन साहित्य का बृहद् इतिहास तमाम कर दूंगा । ऐसा सोचने वाला सोया हुआ हो अथवा जगता हुआ, चलता हुआ हो अथवा बैठा हुआ, निरन्तर उसके मन में हत्या की भावना बनी ही रहती है । वह किसी भी समय अपनी हत्या की भावना को क्रियारूप में परिणत कर सकता है । अपनी इस दुष्ट मनोवृत्ति के कारण वह प्रतिक्षण कर्मबन्ध करता रहता है। इसी प्रकार जो जीव सर्वथा संयमहीन है, प्रत्याख्यान रहित हैं वे समस्त षड्जीवनिकाय के प्रति हिंसक भावना रखने के कारण निरन्तर कर्मबन्ध करते रहते हैं । अतएव संयमी के लिए सावधयोग का प्रत्याख्यान आवश्यक है। जितने अंश में सावद्यवृत्ति का त्याग किया जाता है उतने ही अंश में पापकर्म का बन्धन रुकता है । यही प्रत्याख्यान की उपयोगिता है। असंयत एवं अविरत के लिए अमर्यादित मनोवृत्ति के कारण पाप के समस्त द्वार खुले रहते हैं अतः उसके लिए सर्वप्रकार के पापबंधन की संभावना रहती है। इस संभावना को अल्प अथवा मर्यादित करने के लिए प्रत्याख्यानरूप क्रिया की आवश्यकता है । प्रस्तुत अध्ययन की वृत्ति में वृत्तिकार ने नागार्जुनीय वाचना का पाठान्तर दिया है । यह पाठान्तर माधुरी वाचना के मूल पाठ की अपेक्षा अधिक विशद एवं सुबोध है। आचारश्रुत : पाँचवें अध्ययन के दो नाम है : आचारश्रुत व अनगारश्रुत । नियुक्तिकार ने इन दोनों नामों का उल्लेख किया है। यह सम्पूर्ण अध्ययन पद्यमय है । इसमें ३३ गाथाएं है। नियुक्तिकार के कथनानुसार इस अध्ययन का सार 'अनाचारों का त्याग करना' है। जब तक साधक को आचार का पूरा ज्ञान नहीं होता तब तक वह उसका सम्धक्तया पालन नहीं कर सकता। अबहुश्रुत साधक को आचार-अनाचार के भेद का पता कैसे लग सकता है ? इस प्रकार के मुमुक्षु द्वारा आचार की विराधना होने को बहुत संभावना रहतो है । अतः आचार की सम्यगाराधना के लिए साधक को बहुश्रुत होना आवश्यक है । प्रस्तुत अध्ययन की प्रथम ग्यारह गाथाओं में अपुक प्रकार के एकान्तवाद को अनाचरणीय बताते हुए उसका निषेध किया गया है। आगे लोक नहीं है, अलोक नहीं है, जीव नहीं हैं, अजीव नहीं हैं, धर्म नहीं है, अधर्म नहीं है, बंध नहीं है, मोक्ष नहीं है, पुण्य नहीं है, पाप नहीं है, आस्रव नहीं है, र्सवर नहीं है, वेदना नहीं है, निर्जरा नहीं है, क्रिया नहीं है, अक्रिया नहीं है, क्रोध-मान-मायालोभ राग-द्वेष-संसार-देव-देवी-सिद्धि-आसद्धि नहीं है, साधु-असाधु-कल्याणअकल्याण नहीं है-इत्यादि मान्यताओं को अनाचरणोय बताते हुए लोकादि के अस्तित्व पर श्रद्धा रखने एवं तदनुरूप आचरण करने के लिए कहा गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002094
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size13 MB
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