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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
त्यागधर्म का उपदेश देता है जिससे निर्वाण को प्राप्ति होती है। यह धर्म जिनप्रगोत है, वीतरागकथित है । जो अनासक्त हैं, नि:स्सह है, अहिंसादि को जीवन में मूर्तरूप देने वाले हैं वे निर्वाग प्राप्त कर सकते हैं। इससे विपरोत आचरण वाले मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकते । यही प्रथम अध्ययन का सार है । इस अध्ययन के कुछ वाक्य एवं शब्द आचारांग के वाक्यों एवं शब्दों से मिलते-जुलते हैं। क्रियास्थान : __ कियास्थान नामक द्वितीय अध्ययन में विविध क्रियास्थानों का परिचय दिया गया है । क्रियास्यान का अर्थ है प्रवृत्ति का निमित्त । विविध प्रकार की प्रवृत्तियों के विविध कारण होते हैं। इन्हीं कारणों को प्रवृत्तिनिमित्त अथवा क्रियास्थान कहते हैं इन क्रियास्थानों के विषय में प्रस्तुत अध्ययन में पर्याप्त प्रकाश डाला गया है। क्रियास्थान प्रधानतया दो प्रकार के हैं : धर्मक्रियास्थान और अधर्मक्रियास्थान । अधर्मक्रियास्थान के बारह प्रकार हैं :
- १. अर्थदण्ड, २. अनर्थदण्ड, ३. हिंसादण्ड, ४. अकस्मात्दण्ड, ५. दृष्टिविपर्यासदण्ड, ६. मृषाप्रत्ययदण्ड, ७. अदत्तादानप्र यदण्ड, ८. अध्यात्मप्रत्ययदण्ड, ९. मानप्रत्ययदण्ड, १०. मित्रदोषप्रत्ययदण्ड, ११. मायाप्रत्ययदण्ड, १२. लोभप्रत्ययदण्ड । धर्मक्रियास्थान में धर्म हेतुक प्रवृत्ति का समावेश होता है। इस प्रकार १२ अधर्मक्रियास्थान एवं १ धर्मक्रियास्थान इन १३ क्रियास्थानों का निरूपण प्रस्तुत अध्ययन का विषय है ।
१. हिंसा आदि दूषणयुक्त जो प्रवृत्ति किसी प्रयोजन के लिए की जाती है वह अर्थदण्ड है । इसमें अपनी जाति, कुटुम्ब, मित्र आदि के लिए की जाने वाली अस अथवा स्थावर जीवों की हिंसा का समावेश होता है ।
२. बिना किसी प्रयोजन के केवल आदत के कारण अथवा मनोरंजन के हेतु की जानेवाली हिंसादि दूषणयुक्त प्रवृत्ति अनर्थदण्ड है।
३. अमुक प्राणियों ने मुझे अथवा मेरे किसी सम्बन्धी को मारा था, मारा है अथवा मारने वाला है-ऐसा समझ कर जो मनुष्य उन्हें मारने की प्रवृत्ति करता है वह हिंसादण्ड का भागी होता है ।
४. मृगादि को मारने की भावना से बाण आदि छोड़ने पर अकस्मात् किसो अन्य पक्षी आदि का वध होने का नाम अकस्मात्दण्ड है।
५. दृष्टि में विपरीतता होने पर मित्र आदि को अमित्र आदि की बुद्धि से मार देने का नाम दृष्टिविपर्यासदण्ड है।
६. अपने लिए, अपने कुटुम्ब के लिए अथवा अन्य किसी के लिए झूठ
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