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________________ सूत्रकृतांग १९१ एक पूरा अध्याय है । उसमें ३४ श्लोकों द्वारा क्षेत्र एवं क्षेत्रज्ञ के स्वरूप के विषय में विस्तृत चर्चा की गई है । भगवान् महावीर के लिए प्रयुक्त क्षेत्रज्ञ' विशेषण की व्याख्या यदि गीता के इस अध्याय के अनुसार की जाय तो अधिक उचित होगी। इस व्याख्या से ही भगवान् की खास विशेषता का पता लग सकता है । कुशल, आशुप्रज्ञ, अनन्तज्ञानी एवं अनन्तदर्शी का अर्थ सुप्रतीत है । पाँचवीं गाथा में भगवान् के धृतिगुण का वर्णन है। भगवान् धृतिमान् हैं, स्थितात्मा हैं, निरामगंध है, ग्रन्थातीत हैं, निर्भय हैं। धृतिमान् का अर्थ है धैर्यशाली । कैसा भी सुख अथवा दुःख का प्रसंग उपस्थित होने पर भगवान् सदा एकरूप रहते हैं। यही उनका धर्य है। स्थितात्मा का अर्थ है स्थिर आत्मावाला । मानापमान की कैसी भी स्थिति में भगवान् स्थिरचित्त-निश्चल रहते हैं। निरामगंध का अर्थ है निर्दोषभोजी। भगवान् का भोजन सर्व प्रकार से निर्दोष होता है । ग्रन्थातीत का अर्थ है परिग्रहरहित । भगवान् अपने पास किसी प्रकार का परिग्रह नहीं रखते, किसी प्रकार की साधनसामग्रो पर उनका अधिकार अथवा ममत्व नहीं होता और न वे किसी वस्तु की आकांक्षा ही रखते है। निर्भय का अर्थ है निडर । भगवान् सर्वत्र एवं सर्वदा सर्वथा निर्भय रहते है। आगे की गाथाओं में अन्य अनेक विशेषणों व उपमाओं द्वारा भगवान् की स्तुति की गई है । भगवान् भूतिप्रज्ञ अर्थात् मंगलमय प्रज्ञावाले हैं, अनिकेतचारी अर्थात् अनगार हैं, ओघंतर अर्थात् संसाररूप प्रवाह को तैरने वाले हैं, अनन्तचक्षु अर्थात् अनन्तदर्शी हैं, निरंतर धर्मरूप प्रकाश फैलानेवाले एवं अधर्मरूप अंधकार दूर करने वाले हैं, शक्र के सामन द्युतिवाले, महोदधि के समान गंभीरज्ञानी, मेरु के समान अडिग हैं। जैसे वृक्षों में शाल्मलीवृक्ष, पुष्पों में अरविन्द कमल, वनों में नंदनवन, शब्दों में मेघशब्द, गन्धों में चंदनगंध, दानों में अभयदान, वचनों में निर्दोष सत्यवचन, तपों में ब्रह्मचर्य श्रेष्ठ है वैसे ही निर्वाणवादी तीर्थङ्करों में भगवान् महावीर श्रेष्ठ हैं । योद्धाओं में जैसे विष्वक्सेन अर्थात् कृष्ण एवं क्षत्रियों में जैसे दंतवक्त्र श्रेष्ठ है वैसे ही ऋपियों में वर्धमान महावीर श्रेष्ठ हैं । यहाँ चूर्णिकार व वृत्तिकार ने दंतवक्क- दंतवक्त्र का जो सामान्य अर्थ (चक्रवर्ती) किया है वह उपयुक्त प्रतीत नहीं होता। यह शब्द एक विशिष्ट क्षत्रिय के नाम का सूचक है। जिसके मुख में जन्म से ही दांत हों उसका नाम है दंतवक्त्र । इस नाम के विषय में महाभारत में भी ऐसी ही प्रसिद्धि है । वृत्तिकार ने तो विष्वक्सेन का भी सामान्य अर्थ ( चक्रवर्ती ) किया है जब कि अमरकोश आदि में इसका कृष्ण अर्थ प्रसिद्ध है। वर्धमान महावीर ने जिस परम्परा का अनुसरण किया उसमें क्या सुधार किया? इसका उत्तर देते हुए सूत्रकार ने लिखा कि उन्होंने स्त्रीसहवास एवं रात्रिभोजन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002094
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size13 MB
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