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प्रस्तुत इतिहास की योजना और मर्यादा :
प्रस्तुत ग्रन्थ 'जैन साहित्य का बृहद् इतिहास' की मर्यादा क्या है, यह स्पष्ट करना आवश्यक है । यह केवल जैनधर्म या दर्शन से ही सम्बद्ध साहित्य का इतिहास नहीं होगा अपितु जैनों द्वारा लिखित समग्र साहित्य का इतिहास होगा ।
साहित्य में यह भेद करना कि यह जैनों का लिखा है और यह जैनेतरों का, उचित तो नहीं है किन्तु ऐसा विवश होकर ही करना पड़ा है । भारतीय साहित्य के इतिहास में जैनों द्वारा लिखे विविध साहित्य की उपेक्षा होती आई है । यदि ऐसा न होता तो यह प्रयत्न जरूरी न होता । उदाहरण के तौर पर संस्कृत साहित्य के इतिहास में जब पुराणों पर लिखना हो या महाकाव्यों पर लिखना हो तब इतिहासकार प्रायः हिन्दू पुराणों से ही सन्तोष कर लेते हैं और यही गति महाकाव्यों की भी है । इस उपेक्षा के कारणों की चर्चा जरूरी नहीं है किन्तु जिन ग्रन्थों का विशेष अभ्यास होता हो उन्हीं पर इतिहासकार के लिए लिखना आसान होता है. यह एक मुख्य कारण है । 'कादम्बरी' के पढ़ने-पढ़ानेवाले अधिक हैं, अतएव उसकी उपेक्षा इतिहासकार नहीं कर सकता किन्तु धनपाल की तिलकमञ्जरी' के विषय में प्रायः उपेक्षा ही है क्योंकि वह पाठ्यग्रन्थ नहीं । किन्तु जिन विरल व्यक्तियों ने उसे पढ़ा है वे उसके भी गुण जानते हैं ।
इतिहासकार को तो इतनी फुर्सत कहाँ कि वह एक - एक ग्रन्थ स्वयं पढ़े और उसका मूल्यांकन करे । होता प्रायः यही है कि जिन ग्रन्थों की चर्चा अधिक हुई हो उन्हीं को इतिहास ग्रन्थ में स्थान मिलता है, अन्य ग्रन्थों की प्रायः उपेक्षा होती है । 'यशस्तिलक' जैसे चम्पू को बहुत वर्षों तक उपेक्षा ही रही किन्तु डॉ० हन्दिकी ने जब उसके विषय में पूरी पुस्तक लिख डाली तब उस पर विद्वानों का
ध्यान गया ।
इसी परिस्थिति को देखकर जब इस इतिहास की योजना बन रही थी तब डॉ० ए० एन० उपाध्ये का सुझाव था कि इतिहास के पहले विभिन्न ग्रन्थों या विभिन्न विषयों पर अभ्यास, लेख लिखाये जायँ तब इतिहास की सामग्री तैयार होगो और इतिहासकार के लिए इतिहास लिखना आसान होगा । उनका यह बहुमूल्य सुझाव उचित ही था किन्तु उचित यह समझा गया कि जब तक ऐसे लेख तैयार न हो जायँ तब तक हाथ पर हाथ धरे बैठे रहना भी उचित नहीं है । अतएव निश्चय हुआ कि मव्यम मार्ग से जैन साहित्य के इतिहास को अनेक
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