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अंग ग्रन्थों का अंतरंग परिचय : आचारांग
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अन्य पर थूक न गिरे तथा पुस्तक पर भी भूँक न पड़े, इस दृष्टि से मुँहपत्ती का उपयोग प्रारम्भ हुआ हो । मुँह पर मुँहपत्ती बांध रखने का रिवाज तो बहुत समय बाद ही चला है ।"
महावीर चर्या :
की घटना का
आचारांग के उपधानश्रुत नामक नववें अध्ययन में भगवान् महावीर का जो चरित्र दिया गया है वह भगवान् की जीवनचर्या का साक्षात् द्योतक है । उसमें कहीं भी अत्युक्ति नहीं है । उनके पास इंद्र, सूर्य आदि के आने कहीं भी निर्देश नहीं है । इस अध्ययन में भगवान् के धर्मचक्र के प्रवर्तन अर्थात् उपदेश का स्पष्ट उल्लेख है । इसमें भगवान् की दीक्षा से लेकर निर्वाण तक की समग्र जीवन- घटना का उल्लेख है । भगवान् ने साधना की, वीतराग हुए, देशना दी अर्थात् उपदेश दिया और अन्त में 'अभिनिव्वुडे' अर्थात् निर्वाण प्राप्त किया । इस अध्ययन में एक जगह ऐसा पाठ है : -
अप्पं तिरियं पेहाए अप्पं पिट्ठओ व पेहाए । अप्पं बुइ पडिभाणी पंथपेही चरे जयमाणे ॥
अर्थात् भगवान् ध्यान करते समय तिरछा नहीं देखते अथवा कम देखते, पीछे नहीं देखते अथवा कम देखते, बोलते नहीं अथवा कम बोलते, उत्तर नहीं देते. अथवा कम देते एवं मार्ग को ध्यानपूर्वक यतना से देखते हुए चलते ।
इस सहज चर्या का भगवान् के जन्मजात माने जाने वाले अवधिज्ञान के साथ विरोध होता देख चूर्णिकार इस प्रकार समाधान करते हैं कि भगवान् को आंख का उपयोग करने की कोई आवश्यकता नहीं है ( क्योंकि वे छद्मावस्था में भी अपने अवधिज्ञान से बिना आंख के ही देख सकते हैं. जान सकते हैं) फिर भी शिष्यों को समझाने के लिए इस प्रकार का उल्लेख आवश्यक है: ण एतं भगवतो भवति, तहावि आयरियं धम्माणं सिस्साणं इति काउं अप्पं तिरियं ( चूर्णि पृ० ३१० ) इस प्रकार चूर्णिकार ने भगवान् महावीर से सम्बन्धित महिमावर्धक अतिशयोक्तियों को सुसंगत करने के लिए मूलसूत्र के बिलकुल सीधे-सादे एवं सुगम वचनों को अपने ढंग से समझाने का अनेक स्थानों पर प्रयास किया है । पीछे के टीकाकारों ने भी एक या दूसरे ढंग से इसी पद्धति का अवलम्बन लिया
१. जैन शासन में क्रियाकांड में परिवर्तन करने वाले और स्थानकवासी परम्परा के प्रवर्तक प्रधान पुरुष श्री लोकाशाह भी मुहपत्ती नहीं बांधते थे | बांधने की प्रथा बाद में चली है । देखिए — गुरुदेव श्री रत्नमुनि स्मृति ग्रन्थ में पं० दलसुखभाई मालवणिया का लेख 'लोकाशाह और उनकी विचारधारा' ।
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