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अंग ग्रन्थों का अंतरंग परिचय: आचारांग
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सब प्रकार का आमगंध हेय है अर्थात् बाह्य आमगंध - मांसादि एवं आन्तरिक आमगंध - आम्यन्तरिक दोष ये दोनों ही त्याज्य हैं ।
आस्रव व परिस्रव :
'जे आसवा ते परिस्सवा, जे परिस्सवा ते आसवा; जे अणासवा ते अपरिस्सवा, जे अपरिस्सवा ते अणासवा' आचारांग ( अ. ४, उ. २ ) के इस वाक्य का अर्थ समझने के लिये आस्रव व परिस्रव का अर्थ जानना जरूरी है । आस्रव शब्द 'बंधन के हेतु' के अर्थ में और परिस्रव शब्द 'बंधन के नाश के हेतु' के अर्थ में जैन व बौद्ध परिभाषा में रूढ़ है । अतः 'जे आसवा.
बंधन के नाश के हेतु हैं वे अनास्रव हैं अर्थात् बंधन
बन जाते हैं और जो
वाक्यों का गूढार्थ आधार पर समझा
की विचित्रता के
अर्थ यह हुआ कि जो आस्रव हैं अर्थात् बंधन के हेतु हैं वे कई बार परिस्रव अर्थात् बंधन के नाश के हेतु बन जाते हैं और जो - कई बार बंधन के हेतु बन जाते हैं । इसी प्रकार जो के हेतु नहीं हैं वे कई बार अपरिस्रव अर्थात् बंधन के हेतु बंधन के हेतु हैं वे कई बार बंधन के अहेतु बन जाते हैं । इन 'मन एव मनुष्याणां कारणं बन्ध-मोक्षयोः' के सिद्धान्त के जा सकता है । बंधन व मुक्ति का कारण मन ही है । मन कारण ही जो हेतु बंधन का कारण होता है वही मुक्ति का जाता है । इसी प्रकार मुक्ति का हेतु बंधन का कारण भी उदाहरण के लिए एक ही पुस्तक किसी के लिए ज्ञानार्जन का कारण बनती है तो किसी के लिए क्लेश का, अथवा किसी समय विद्योपार्जन का हेतु बनती है तो किसी समय कलह का । तात्पर्य यह है कि चित्तशुद्धि अथवा अप्रमत्तता - पूर्वक की जाने वाली क्रियाएं ही अनास्रव अथवा परिस्रव का कारण बनती हैं । अशुद्ध चित्त अथवा प्रमादपूर्वक की गई क्रियाएँ आस्रव अथवा अपरिस्रव का कारण होती हैं । वर्णाभिलाषा :
भी कारण बन
बन सकता है ।
'वण्णा एसी नारभे कंचणं सव्वलोए' ( आचारांग, अ. ५, उ. २ सू. १५५ ) का अर्थ इस प्रकार है : वर्ण का अभिलाषी लोक में किसी का भी आलंभन न करे । वर्ण अर्थात् प्रशंसा, यश, कीर्ति । उसके आदेशी अर्थात् अभिलाषी को सारे संसार में किसी की भी हिंसा नहीं करनी चाहिए; किसी का भी भोग नहीं लेना चाहिए । इसी प्रकार असत्य, चौर्य आदि का भी आचरण नहीं करना चाहिए । यह एक अर्थ है । दूसरा अर्थ इस प्रकार है : संसार में कीर्ति अथवा प्रशंसा के लिए देहदमनादिक की प्रवृत्ति नहीं करनी चाहिए। तीसरा अर्थ यों है : लोक में वर्ण अर्थात् रूपसौन्दर्य ले लिए किसी प्रकार का संस्कार - स्नानादि की प्रवृत्ति नहीं करनी चाहिए ।
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