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________________ १५० जैन साहित्य का बृहद् इतिहास सुत्त में भगवान् बुद्ध के मुख से ये शब्द कहलाये गये हैं : 'जानतो अहं भिक्खवे परसतो आसवानं खयं वदामि, नो अजानतो नो अपस्सतो' अर्थात् हे भिक्षुओ ! मैं जानता हुआ — देखता हुआ आसवों के क्षय की बात करता हूँ, नहीं जानता हुआ नहीं देखता हुआ नहीं। इसी प्रकार का प्रयोग भगवती सूत्र में भी मिलता है : 'जे इमे भंते ! बेइंदिया पंचिदिया जीवा एएसि आणामं वा पाणामं वा उस्सास वा निस्सासं वा जाणामो पासामो, जे इमे पुढविकाइया .... एगिदिया जीवा एएसि णं आणामं वानीसासं वा न याणामो न पासामो' (श. २, उ. १ ) - द्वींद्रियादिक जीव जो श्वासोच्छ्वास आदि लेते हैं वह हम जानते हैं, देखते हैं किन्तु एकेन्द्रिय जीव जो श्वास आदि लेते हैं वह हम नहीं जानते, नहीं देखते । ज्ञान के स्वरूप की परिभाषा के अनुसार दर्शन सामान्य, उपयोग सामान्य, बोध अथवा निराकार प्रतीति है, जब कि ज्ञान विशेष उपयोग, विशेष बोध अथवा साकार प्रतीति है । मनःपर्याय उपयोग ज्ञानरूप ही माना जाता है, दर्शनरूप नहीं, क्योंकि उसमें विशेष का ही बोध होता है, सामान्य का नहीं । ऐसा होते हुए भी नंदीसूत्र में ऋजुमति एवं विपुलमति मनःपर्यायज्ञानी के लिए 'जाणइ' व 'पास' दोनों पदों का प्रयोग हुआ है । यदि 'जाणई' पद केवल ज्ञान का ही द्योतक होता और 'पासइ' पद केवल दर्शन का ही प्रतीक होता तो मनःपर्यायज्ञानी के लिए केवल 'जाई' पद का ही प्रयोग किया जाता, 'पास' पद का नहीं । नंदी में एतद्विषयक पाठ इस प्रकार है दव्त्रओ णं उज्जुमई णं अणते अनंतपएसिए खंधे जाणइ पासइ, ते चेव विउलमई अब्भहियतराए विउलतराए वितिमिरतराए जाणइ पासइ । खेत्तओ णं उज्जुमई जहन्त्रेणं. ........उक्कोसेणं मणोगए भावे जाणइ पासइ, तं चैव विउलमई विसुद्धतरं.. . जाणइ पासइ । कालओ णं उज्जुमई जहन्नेणं....उक्कोसेणं पि जाणइ पासइ तं चेव विउलमई विसुद्धतरागं...... जाणइ पास | भावओ णं उज्जुमई. . जाणइ पासइ । तं चेव विउलमई विसुद्धतरागं जाणइ पासइ । इसो प्रकार श्रुतज्ञानों के सम्बन्ध में भी नंदीसूत्र में 'सुअणाणी उवउत्ते सव्त्रदव्वाई जाणइ पासई' ऐसा पाठ आता है । श्रुतज्ञान भी ज्ञान ही है, दर्शन नहीं । फिर भी उसके लिए 'जाणइ' व 'पास' दोनों का प्रयोग किया गया है । 'जाणइ पासई' का दर्शन के क्रम-अक्रम यह सब देखते हुए यही मानना विशेष उचित है कि प्रयोग केवल एक भाषाशैली है । इसके आधार पर ज्ञान व का विचार करना युक्तियुक्त नहीं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002094
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size13 MB
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