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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास है क्रियावादी। ये चारों वाद आत्मा के अस्तित्व पर अवलम्बित हैं। जो आत्मवादी है वही लोकवादी, कर्मवादी एवं क्रियावादी है । जो आत्मवादी नहीं है वह लोकवादी, कर्मवादी अथवा क्रियावादी नहीं है। सूत्रकृतांग में बौद्धमत को क्रियावादी दर्शन कहा गया है : अहावरं पुरक्खायं किरियावाइदरिसणं (अ. १, उ. २, गा. २४)। इसकी व्याख्या करते हुए चूर्णिकार व वृत्तिकार भी इसी कथन का समर्थन करते हैं । इसी सूत्रकृत-अंगसूत्र के समवसरण नामक बारहवें अध्ययन में क्रियावादी आदि चार वादों की चर्चा की गई है। वहाँ मूल में किसी दर्शन विशेष के नाम का उल्लेख नहीं है तथापि वृत्तिकार ने अक्रियावादी के रूप में बौद्धमत का उल्लेख किया है। यह कैसे ? सूत्र के मूल पाठ में जिसे क्रियावादी कहा गया है एवं व्याख्यान करते हुए स्वयं वृत्तिकार ने जिसका एक जगह समर्थन किया है उसी को अन्यत्र अक्रियावादी कहना कहाँ तक युक्तिसंगत है ?
आचारांग में आने वाले 'एयावंति' व 'सव्वावंति' इन दो शब्दों का चूर्णिकार ने कोई स्पष्टीकरण नहीं किया है। वृत्तिकार शीलांकसूरि इनकी व्याख्या करते हुए कहते हैं : एतौ द्वौ शब्दो मागधदेशीभाषाप्रसिद्धया, 'एतावन्तः सर्वेऽपि इत्येतत्पर्यायौ' ( आचारांगवृत्ति, पृ. २५ ) अर्थात् ये दो शब्द मगध की देशी भाषा में प्रसिद्ध हैं एवं इनका 'इतने सारे' ऐसा अर्थ है । प्राकृत व्याकरण को किसी प्रक्रिया द्वारा ‘एतावन्तः' के अर्थ में 'एयावंति' सिद्ध नहीं किया जा सकता और न ‘सर्वेऽपि' के अर्थ में 'सव्वावंति' ही साधा जा सकता है । वृत्तिकार ने परम्परा के अनुसार अर्थ समझाने की पद्धति का आश्रय लिया प्रतीत होता है : बृहदारण्यक उपनिषद् में ( तृतीय ब्राह्मण में) 'लोकस्य सर्वावतः' अर्थात् 'सारे लोक की' ऐसा प्रयोग आता है। यहाँ 'सर्वावतः' 'सर्वावत' का षष्ठी विभक्ति का रूप है । इसका प्रथमा का बहुवचन 'सर्वावन्तः' हो सकता है। आचारांग के सव्वावंति और उपनिषद् के 'सर्वावतः' इन दोनों प्रयोगों की तुलना की जा सकती है।
आचारांग में एक जगह 'अकस्मात्' शब्द का प्रयोग मिलता है : आठवें अध्ययन में जहाँ अनेक वादों-लोक है, लोक नहीं है इत्यादि का निर्देश है वहाँ इन सब वादों को निर्हेतुक बताने के लिए 'अकस्मात्' शब्द का प्रयोग किया गया है । सम्पूर्ण आचारांग में, यहाँ तक कि समस्त अंगसाहित्य में अंत्यव्यञ्जनयुक्त ऐसा विजातीय प्रयोग अन्यत्र कहीं दृष्टिगोचर नहीं होता। वृत्तिकार ने इस शब्द का स्पष्टीकरण भी पूर्ववत् मगध की देशी भाषा के रूप में ही किया है। वे कहते हैं : 'अकस्मात् इति मागधदेशे आगोपालाङ्गनादिना संस्कृतस्यैव
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