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________________ १३२ जैन साहित्य का बृहद् इतिहास ब्रह्मचर्य का ही वाचक है। चूंकि ब्रह्मचर्य संयम रूप है अतः ब्रह्म शब्द सत्रह प्रकार के संयम सूचक भी हैं। इसका समर्थन स्वयं नियुक्तिकार ने ( २८ वीं गाथा में ) किया है । ऐसा होते हुए भी स्थापनातः ब्रह्म का स्वरूप समझाते हुए नियुक्तिकार ने यज्ञोपवीतादियुक्त और ब्राह्मणगुणवर्जित जाति ब्राह्मण को भी स्थापनातः ब्रह्म क्यों कहा ? किसी दूसरे को अर्थात् क्षत्रिय, वैश्य अथवा शूद्र को स्थापनातः ब्रह्म क्यों नहीं कहा ? इसका समाधान यह है कि जिस काल में आचारांगसूत्र की योजना हुई वह काल भगवान् महावीर व सुधर्मा का था। उस काल में ब्रह्मचर्य धारण करने वाले अधिकांशतः ब्राह्मण होते थे। किसी समय ब्राह्मण वास्तविक अर्थ में ब्रहाचारी थे किन्तु जिस काल की यह सूत्रयोजना है उस काल में ब्राह्मण अपने ब्राह्मणवर्म से अर्थात् ब्राह्मण के यथार्थ आचार से च्युत हो गये थे। फिर भी ब्राह्मण जाति के बाह्य चिह्नों को धारण करने के कारण ब्राह्मण ही माने जाते थे । इस प्रकार उस समय गुण नहीं किन्तु जाति ही ब्राह्मणत्व का प्रतीक मानी जाने लगी। सुत्तनिपात के ब्राह्मणम्मिकसुत्त ( चूलवग्ग, सू० ७ ) में भगवान् बुद्ध ने इस विषय में सुन्दर चर्चा की है। उसका सार नीचे दिया है : श्रावस्तो नगरी में जेतवनस्थित अनाथपिण्डिक के उद्यान में आकर ठहरे हुए भगवान् बुद्ध से कोशल देश के कुछ वृद्ध व कुलोन ब्राह्मणों ने आकर प्रश्न किया-“हे गौतम ! क्या आजकल के ब्राह्मण प्राचीन ब्राह्मणों के ब्राह्मणधर्म के अनुसार आचरण करते हुए दिखाई देते हैं ?' बुद्ध ने उत्तर दिया- 'हे ब्राह्मणों ! आजकल के ब्राह्मण पुराने ब्राह्मणों के ब्राह्मणधर्म के अनुसार आचरण करते हुए दिखाई नहीं देते।" ब्राह्मण कहने लगे-“हे गौतम ! प्राचीन ब्राह्मणधर्म क्या है, यह हमें बताइए।" बुद्ध ने कहा-'प्राचीन ब्राह्मण ऋषि संयतात्मा एवं तपस्वी थे। वे पाँच इन्द्रियों के विषयों का त्याग कर आत्मचिन्तन करते । उनके पास पशु न थे, धन न था। स्वाध्याय ही उनका धन था। वे ब्राह्मनिधि का पालन करते। लोग उनके लिए श्रद्धापूर्वक भोजन बना कर द्वार पर तैयार रखते व उन्हें देना उचित समझते । वे अवध्य थे एवं उनके लिए किसी भी कुटुम्ब में आने-जाने की कोई रोक-टोक न थी। वे अड़तालीस वर्ष तक कौमार ब्रह्मचर्य का पालन करते एवं प्रज्ञा व शील का सम्पादन करते । ऋतुकाल के अतिरिक्त वे अपनी प्रिय स्त्री का सहवास भी स्वीकार नहीं करते । वे ब्रह्मचर्य, शील, आर्जव, मार्दव, तप, समाधि, अहिंसा एवं शान्ति की स्तुति करते । उस समय सुकुमार, उन्नतस्कन्ध, तेजस्वी एवं यशस्वी ब्राह्मण स्वधर्मानुसार आचरण करते तथा कृत्य-अकृत्य के विषय में सदा दक्ष रहते । वे चावल, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002094
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBechardas Doshi
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Canon, & Agam
File Size13 MB
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