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जिनचंद सूरि - जिनलाभ सूरि १७९६ में दीक्षा और नाम लक्ष्मीलाभ रखा गया। सं० १८०४ में आपको आचार्य पद पर माण्डवी में प्रतिष्टित किया गया। आप अच्छे विद्वान और कवि थे। आपने आबू, राणकपुर, वरकाणा, लोद्रवा, जैसलमेर और शंखेसर आदि तीर्थों के स्तवन के अलावा सूरत के सहस्र फणा और शीतलनाथ आदि की प्रतिष्ठा का स्तवन तथा पार्श्वस्तवन सं० १८१८, नवपदस्तवन, दादाजीस्तवन और दो चौबीसियाँ लिखी हैं।१३७ नवपद स्तव का अपरनाम सिद्धचक्रस्तव है और यह प्रकाशित है। वरकाणा स्तव (१८२१ सं०, चैत्र, शुक्ल १५) यह सूरत नो जैन इतिहास में प्रकाशित है। इनकी चौबीसी का आदि इस प्रकार हैऋषभ पद- ऋषभ जिणंद सुखकंद आनंद भरि, भेट्यो श्री ऋषभ जिणंद,
विक्रमपुर मंडन दुखखंडन, छंडन भव-भय छंद। शिवसंपति कारन जगतारन, वंदिर सुरनर वृंद, मिथ्या मोहत मोहनी वारन अद्भुत ज्योति दिनंद। भविक कुमुद परमोद प्रकाशन शरद पूनिम निस चंद,
चरण कमल सेवत मधुकर सम, श्री जिनलाभ सुरिंद। अंतिम पंक्ति– श्री जिनलाभ अहोनिस सांची अहिज मो मन टेवा री।
यह ११५१ स्तवन मंजूषा में प्रकाशित है।१३८
आपकी एक अन्य रचना चिंतामणिस्तवन (७ कड़ी राग काफी) का प्रारंभ इन पंक्तियों से हुआ है
जिनमंदिर जयकार अइसइ खेलियइ होरी,
कुमति कवाग्रह सरियइ आतमहित चित धारियइ। वीर स्तवन (११ कड़ी सं० १८२८ फाल्गुन शुक्ल ८, सोमवार) का आदि
कर जोड़ी वीनति करूं साहिब जी, सांभलि सुगुण समंद हो जिनवर जी,
दरस मुझ दीजियइ साहब जी।
चावउ चरम जिनेसरू साठ, नायक त्रिशलानंद हो, जि० रचनाकाल- रस दृग वसु प्रथिवी समइ सा०, फागुण मास उदार हो,
सुदि आठम शशिवासरे सा पुहचउ मुझ मन वास हो, जि० श्री जिनलाभ सुरीश की सा०, ओ उत्तम अरदास हो, जि०।१३९
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