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रचनायें
आदि
कलश
बीज नुं० स्तव (सं० १८७८ आषाढ़ शुक्ल १०, सिद्धपुर)
"सरस बचन रस बरसती, सरसती कला भण्डार, बीज तणो महिमा कहुं, जिम को शास्त्र विचार |
हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
इम वीर जिनवर सयल सुखकर, गाइयो अति उलट भरे । आषाढ़ ऊजल दशमी दिन, सं० १८७८ तरे ।
बीज महीमा अह ब्रणव्यो रही सिद्धपुर चोमासु ओ,
जे भवीक प्राणी भणे गुणे तस घर लील विलास ओ ।"
यह कृति 'चैत्य आदि संञ्झाय भाग ३ और जैन प्राचीन पूर्वाचार्यो विरचित स्तवने संग्रह' में प्रकाशित है।
मैत्राणा मंडन ऋषभदेव जिन (उत्पत्ति नुं) स्त० (पाँच ढाल सं० १९०१ माह शुक्ल १३ मंगलवार, मैत्राणा) का
आदि–
कलश
"स्वस्ति श्री वरदायका सासननायक रीद्ध, गुज्जर देश सोहामणो पाटणवाडो परसीध ।”
रचनाकाल— 'संवत् ओगणीसेसइकासमे, श्रावण मास मझार, वदि तिथि अकादशी, सोमवार सुखकार ।'
एक बार मैत्राणा में पर्युसण के अवसर पर स्वप्न देकर चार प्रतिमायें ऋषभ, शांति, कुंथु और पद्म की भूमि खोदने पर प्रकट हुई। उनका स्थापनोत्सव हुआ । उस उत्सव का स्मरण करके कवि चतुरविजय लिखते हैं-
चार निवारक च्यारे जिनवर, प्रगट थया तत्तसखेव रे,
" ऋषभ शांति कुंथु जिनवर पदम प्रभु ने प्रणमि ओ, धन सुधन सुवास सुंदर कनक कचोले अरची ओ दीप धूप पुफमाल बहुविध पगर पूरीई,
श्री जिनशासन भक्ति करतां सकल संकट चूरीईं, श्री विजय प्रभ पाट मुनिवरा जिनविजय चित ध्याइ अ, नवलविजय जिन सेवा करता, मन वंछित फल पाइयें । "
यह रचना जैन सत्य प्रकाश सन् १९४३ में प्रकाशित है । 'कुमति निवारक
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