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हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
पर दिगम्बर और श्वेताम्बर नामक दो सम्प्रदायों में बँट गया। इन दोनों में एक मूलभूत समानता यह थी कि दोनों मूर्तिपूजक संप्रदाय थे। १६वीं शताब्दी में श्वेताम्बर संप्रदाय में एक क्रान्ति हुई और महावीर के निर्वाण के दो हजार वर्ष बाद वीर सं० २००१
लोकाशाह ने गुण पूजक संप्रदाय का प्रचार प्रारंभ किया। ये मूर्तिपूजा के स्थान पर गुणपूजा को महत्त्व देते थे। वे असद् वृत्तियों के उच्छेदक थे। इनका वर्णन यथास्थान १६वीं शती के इतिहास के साथ किया गया है। आपका हीरे-जवाहरात का अहमदाबाद में ख्याति प्राप्त कारोबार था और वहाँ का शासक मुहम्मदशाह इन्हें बहुत मानता था। ये उसके दस वर्ष तक मंत्री रहे। संपन्नता में रह कर उनकी तत्त्व शोधक वृत्ति कभी मंद नहीं हुई। वह मंदिरों, मठों, प्रतिमा गृहों को आगम की कसौटी पर कस कर देखते तो उन्हें कहीं भी मोक्षोपाय में प्रतिमा की प्रतिष्ठा नहीं प्राप्त होती थी। उन्होंनें घोषित किया कि मोक्ष की सिद्धि के लिए मंदिरोंपासना की कोई आवश्यकता नहीं । निग्रंथ धर्म के पालन के लिए मठाधीशों और सुखकामी साधुओं की दासता और उनपर अन्धविश्वास करने की जरूरत नहीं है। यहीं से जैन धर्म की एक नवीन क्रांतिकारी शाखा फूटी जो मंदिरोपासना और मूर्तिपूजकों से भिन्न हो गई। जैन धर्म में यह एक क्रांति थी। वे जड़ की पूजा के स्थान पर चैतन्य की पूजा पर बल देते थे। अंत मे उनकी भी वही गति हुई जो हर क्रांतिकारी की होती आई है। यही लोका गच्छ स्थानकवासी संप्रदाय के नाम से प्रसिद्ध हुआ । 'हार्ट आफ जैनिज्म' ३ की विदेशी लेखिका ने लिखा है कि लोका गच्छ मार्टिन लूथर के प्यूरिटन संप्रदाय की तरह सुधारवादी था। लोकाशाह की इस विरासत को स्थानकवासी संप्रदाय के साधुओं और श्रावकों के संघ ने कठिन संघर्ष करके आगे बढ़ाया। १६वीं १७वीं शती में लोकाशाह की क्रांति की मशाल जीवराज, लवजी, धर्मसिंह, धर्मदास और हरजी ऋषि ने प्रज्वलित रखी। ये लोग क्रियोद्धारक साधु थे। इनकी परम्परा आगे बढ़ी। इनमें धर्मदास के शिष्यों की संख्या अधिक थी। उन्होंने शिष्यों को २२ विभागों में बाँट कर सबके दायित्व निर्धारित किए। इसलिए इसे २२ टोलिया भी कहते हैं।
जैन समाज में 'उप' उपसर्ग का पर्याप्त प्रयोग मिलता है जैसे उपासक, उपाश्रय, उपवास आदि। उपाश्रयों के ममत्व से साधु शिथिलाचारी हो रहे थे। इनके स्थान पर स्थानक आये जो साधुओं के निमित्त नहीं बल्कि श्रावक धर्म चर्चा के निमित्त स्थान बनवाते . थे । इसलिए इस संप्रदाय को स्थानकवासी कहा जाने लगा। आत्म साधना और लोकप्रचार इनकी मुख्य विशेषतायें थी। इस संप्रदाय के साधुओं ने लोक भाषा में साहित्य-रचना की और रास, ढाल, चौपाई आदि नाना काव्य विधाओं में मौलिक तथा अनूदित साहित्य का विशाल भंडार खड़ा किया इस शताब्दी में स्थानकवासी सम्प्रदाय के सिद्धान्तों का प्रबुद्ध जैन समाज पर गहरा प्रभाव दिखाई पड़ता है। इसका प्रभाव अन्य संप्रदायों पर
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