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________________ कल्पसूत्र टीका सर्व जगत की सामग्री चैतन्य सुभाव बिना जडत्व सभाव में धरे फीकी जैसे लून बिना अलौनी रोटी फीकी। तीसो ऐसो ज्ञानी पुरुष कौन है सो ज्ञानामृत नै छोड़ उदाधीक आकुलता सहित दुषने आचरै? कदाचित न आचरै।३३ श्री जयचंद्र जी की गद्य रचना का एक नमूना जीव कर्म रहित होय तब तौ ऊर्द्ध गमन स्वभाव है, सो ऊर्द्ध ही जाय, अर कर्म सहित संसारी है सो विदिशा कू बर्जि करि चारि दिशा अर अध ऊर्द्ध जहाँ उपजना होय तहाँ जाय है। इस गद्य खण्ड की भाषा परिमार्जिक और प्रसाद गुण संपन्न है। यह रचना सं० १८५० की है।३४ इस उद्धरणों से यह भी स्पष्ट होता है कि पुरानी हिन्दी का झुकाव क्रमश: खड़ीबोली की तरफ हो रहा था। सच तो यह है कि १९वीं शती (वि०) में खड़ीबोली गद्य भाषा के रुप में अखिल भारतीय मान्यता प्राप्त कर रही थी और स्वतंत्रता संग्राम काल से लेकर देश के स्वतंत्र होने तक उसे राष्ट्रभाषा और कारोबार की भाषा के रुप सभी प्रान्तों के महापुरुष मान्यता दे चुके थे। उनके उद्धरणों से ग्रंथ का कलेवर बढ़ाना व्यर्थ है। इस शती के पश्चात् अखिल भारतीय साहित्य एक नये युग में प्रवेश करने जा रहा था। इस काल की गद्य भाषा शैली में ही नहीं अपितु पद्य की भाषा शैली में भी समुचित परिष्कार परिवर्तन, परिवर्द्धन हुआ और राजस्थानी, गुजराती, खड़ीबोली आदि का साहित्य स्वतंत्र रुप से विकसित हुआ। इसलिए मरुगुर्जर (पुरानी हिन्दी) साहित्य की सीमा इसी शती के साथ समाप्त होती है। इसकाल के साहित्यकारों ने अपनी विविध प्रकार की रचनाओं द्वारा नवयुग के साहित्यिक विकास के लिए पर्याप्त अनुकूल क्षेत्र तैयार किया जिसका संक्षिप्त सर्वेक्षण-भाषा, शैली, काव्य विद्या और छंद अलंकार आदि की दृष्टि से आगे किया जा रहा है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002093
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1999
Total Pages326
LanguageHindi, MaruGurjar
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size11 MB
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