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हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास की अधीनता मान ली। सन् १८१८ तक पंजाब और सिन्ध को छोड़कर संपूर्ण भारतीय उपमहाद्वीप अंग्रेजी शासन के शिकंजे में कसा जा चुका था, शेष पर परोक्ष रूप से कम्पनी देशी रजवाड़ों और रेजिडन्टों के माध्यम से शासन कर रही थी।
युद्धों से मौका पाकर कम्पनी ने कुछ प्रशासनिक, विधिक सुधार किए और १८१८ से १८५६ ई० तक ब्रिटिश सत्ता का सुदृढ़ीकरण हुआ। १८४३ में सिन्ध पर और १८३९ में पंजाब पर कम्पनी ने विजय प्राप्त कर लिया। लार्ड डलहौजी (१८४८-५६) चाहता था कि भारत के अधिकाधिक बड़े भूभाग पर प्रत्यक्ष ब्रिटिश शासन कायम हो इसलिए उसने देशी रियासतों को समाप्त करने की नीतिवश, उत्तराधिकार अपहरण का रास्ता अख्तियार किया। इस नीति के चलते उसने सतारा, नागपुर, झाँसी और अवध की रियासतों को ब्रिटिश राज्य में मिला लिया। इस प्रकार सन् १८५६ तक प्राय: संपूर्ण भारत पर कम्पनी का प्रभुत्व स्थापित हो गया था। यह काल भारत में ईस्ट इण्डिया कम्पनी के शासन का काल हैं। कम्पनी ने इसी बीच कुछ सामाजिक, प्रशासनिक और नागरिक सुविधा संबंधी सुधार लागू किए जिनका देश के नवजागरण और प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के छिड़ने में मुख्य हाथ था। आगे उनका संक्षिप्त उल्लेख किया जा रहा है। ईस्ट इण्डिया कम्पनी की व्यापार नीति
सन् १८१३ तक इसकी व्यापार नीति कम्पनी तथा उसके कर्मचारियों के लिए अधिकाधिक भारतीय संपदा के दोहन की रही, बाद में ब्रिटिश उद्योग के जरूरतों के अनुकूल उसकी व्यापारिक नीति रखी गई। इस नीति के तहत अपनी मजबूत पकड़ बनाने के लिए परिवहन और संचार माध्यमों का विकास यहाँ के धन से ही किया गया। सन् १८३१ में रेल का प्रारंभ मद्रास से किया गया। सन् १८३४ से भाप के इन्जन रेलगाड़ियों में लगने लगे। १८५३ में बंबई से थाना तक पहिली रेल पटरी यातायात के लिए चालू की गई और १८६९ ई० तक चार हजार मील लंबा रेलमार्ग बन गया जिसका क्रमशः विस्तार हुआ और परिवहन की सुविधा हो गई। रेलों के द्वारा सुगम डाक व्यवस्था की भी सहूलियत मिली। प्रथम टेलीग्राफ लाइन द्वारा कलकत्ता से आगरा तक तार भेजने की सुविधा सन् १८५३ तक हो गई। लार्ड डलहौजी के समय डाक टिकट चालू किए गये। प्रशासनिक नीति
सन् १७५७ से १८५७ के बीच कम्पनी की प्रशासनिक नीति में बराबर परिवर्तन किया गया लेकिन सबका उद्देश्य कम्पनी का मुनाफा बढ़ाना, भारतीय संपदा
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