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हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास आदि- प्रथम जिणेसर आदिपति, वर्द्धमान जिन प्रांत,
ताहि बंदि भाषा करूं, हस्त स्वंभू कांत। रचनाकाल- अठार सै छत्तीस मझार, माघ चतुर्थी सुकल की सार,
हीर पठन कुं भाषा करी जी, कास्मबाजार में मनहरी जी।
चौथी है- भूपाल चोबीसी स्तोत्र नवीन भाषा' (२९ कड़ी सं० १८३६ माघ १४ कासिमबाजार) इसका प्रारंभ देखिये
परम धरम जिनराज को, जग में हो जयवंत,
जिन ध्रइ पद मो हिय वसो, वानी वदन विलसंत। अंत
अठारै से छत्तीस सूसाल, माघ चतुर्दश सुकल सुकाल,
भाषा कीन्हि सब हित लाय, बुधजन बाचो निज हित लाय।४१३
इनकी चारो रचनायें सं० १८३६ में कासिमबाजार में रचित है यह इनके आशु रचनाकार होने का प्रमाण हो सकता है किन्तु इनकी दूसरी; तीसरी और चौथी रचना एक ही माह-माघ में लिखी गईं, यह कुछ शंका उत्पन्न करता है।
'अष्टाह्निका पूजा' नामक एक रचना के कर्ता भी सुरेन्द्रकीर्ति बताये गये है। १४ इसका रचनाकाल सं० १८५१ बताया गया है; स्पष्ट नहीं हो पाया है कि ये ही सुरेन्द्रकीर्ति हैं या कोई अन्य रचनाकार हैं, यह शोध का विषय है।
इनका इतिवृत्त अज्ञात है; इनकी एक रचना 'वाराखड़ी' का उद्धरण श्री देसाई ने दिया है, उसको प्रस्तुत किया जा रहा हैआदि- प्रथम नमौं अरिहंत कू नमौ सिद्ध आचार्य,
उपाध्याय सब साधु को, नमौ पंच प्रकार। भजन करो श्री आदि को अंति नाम महावीर, तीरथंकर चौबीस कौ, नमो ध्यान धरि धीर। x x x x x x जा बानी के सुनत ही, वढ़त परम आणंद,
भई सुरति कछु कहै न कुं, बारखड़ी के छंद। अंत- जो-जो दरसै सो सोही भासै तिन सिवपुर पहुँचावै,
सूरति सिद्ध कहै जैसे गुरुजन पुरानन गाये।
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