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भणे गुणे जो कोई साभंले, तेहनी सफले मन आस जी । ३८३
यह रचना प्राचीन मध्यकालीन बारमासा संग्रह में प्रकाशित है।
वीरविजय
हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
तपागच्छीय सत्यविजय कपूरविजय क्षमाविजय > जसविजय > शुभविजय के शिष्य थे। वीरविजय के शिष्य रंगविजय ने इनके निर्वाणोपरांत एक रास लिखा। उसके अनुसार इनका संक्षिप्त इतिवृत्त यहाँ दिया जा रहा है
वीरविजय का जन्म नाम केशव था। वे राजनगर के शांतिदास पाड़ा निवासी जद्रोसरं विप्र की भार्या विजया की कुक्षि से पैदा हुए थे। पालीताणा में शुभविजय ने केशव को रोग से मुक्ति दिलाई और कार्तिक सं० १८४८ में उसे दीक्षित करके नाम वीरविजय रखा। धीरविजय और भाणविजय इनके गुरु भाई थे। गुरु से शास्त्राभ्यास करके वीरविजय
सं० १८५८ में स्थूलभद्र शियल वेल और अष्टप्रकारी पूजा की रचना की। सं० १८६० में शुभविजय जी का स्वर्गवास हो गया। तत्पश्चात् वीर विजय ने लीवड़ी बढ़वान और सूरत आदि स्थानों का विहार किया। सूरत के अंग्रेज अधिकारी को अपने तिथि ज्ञान से प्रसन्न किया और वहीं रहने लगे। सं० १८७० में स्थानकवासी से झगड़ा हुआ; बाद में अधिकारी ने इनके पक्ष को विजयी घोषित किया।
इन्होंने अनेक मंदिरों का निर्माण और प्रतिमा स्थापन करवाया। सं० १९०८ भाद्र कृष्ण ३ गुरुवार को स्वर्गवासी हुए । इनकी लिखी रचनाओं की संख्या पचीसों हैं किन्तु उनमें से कुछ चुनी रचनाओं का संक्षिप्त परिचय और उदाहरण दिया जा रहा है। रचनायें -
'जिन पंचत्रिशत् वाणी गुण नामार्थ गर्भित स्तव' (६६ कड़ी सं० १८५७) 'सुर सुंदरी रास' वृहद् रचना है, यह चार खण्डो में १५८४ कड़ी की रचना ५२ ढालों में लयवद्ध है। इसकी रचना सं० १८५७ श्रावण शुक्ल ४ गुरुवार को राजनगर (अहमदाबाद) में पूर्ण हुई थी। इसको प्रारंभिक पंक्तियाँ इस प्रकार है
सकल गुणागर पास जी, शंखेश्वर अभिराम, मनवंछित सुख संपजे, नित्य समरतां नाम । सरस्वती से प्रार्थना करता हुआ कवि कहता है—
सुर सुंदरी शीयले सती, सतीयां मां सुप्रकाश; तास रास रचता थका, मुज मुख करज्यो वास ।
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