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________________ विजयनाथ माथुर - विजयलक्ष्मी सूरि रचनाकाल इसमें ज्ञान, दर्शन और चरित्र के योग का महत्त्व बताया गया है। इनके संयोग के बिना सिद्धि कथमपि संभव नहीं है। ज्ञानदर्शन चरित्र नो कहूं परस्पर संवाद, त्रिक्योगे सिद्धि होई, अहेवो वचन प्रवाह । — आदि आवश्यक आदिक ग्रंथ थी जोई, रचना करी मनोहारी रे, हीनादिक निज बुद्धे कहेवायुं, वे श्रुतधर सुधारों रे । मुनि कर सिद्धि वदन ने वरसे, आठम सुदि भले भावे रे, भणसे त्रीस कल्याणक अ दिन, त्रीस चोवीसी ना थावे रे। यह रचना 'सज्जन सन्मित्र' के पृ० ३१७ - ३२३ और चैत्य आदि संझाय भाग १ तथा जिनेन्द्र भक्ति प्रकाश के अलावा अन्यत्र कई स्थानों से प्रकाशित है। 'षट्— अष्टाह्निक (छट अठाई नुं) स्तवन (सं० १८३४ चैत्र शुक्ल १५) श्री स्याद्वाद सुधादधि, वृद्धि हेतु जिनचंद, परम पंच परमेष्ठि मां, तासु चरण सुखकंद । इसमें अपनी गुरु परंपरा पर लेखक ने सविवरण प्रकाश डाला है जिसका उल्लेख पहले किया गया हैं। इसमें हीरविजय के संदर्भ में अकबर प्रबोध की भी चर्चा है। रचनाकाल देखें— इम पार्श्व प्रभुनो पसाय पामी, नामी अठाई गुण कह्या, भवी जीव साधो नित आराधो, आत्मधर्मे ऊमहया । २०७ संवत् जिन अतिशय (३४) वसु (८) शशि (१) चैत्री पुनमें ध्याइया; सौभाग्यसूरि शिष्य लक्ष्मी सूरि बहु संघ मंगल पाइया। यह रचना भी चैत्य आदि संञ्झाय भाग १ और अन्यत्र से भी प्रकाशित है। बीस स्थानक पूजा स्तवन (सं० १८४५ विजयदसमी, शंखेसर) कलश इम बीस स्थानिक स्तवन कुसुमें पुजीओ संखेसरो, संवत समिति वेद वसु शशि विजयदसमी मनोहरो । तपगछ विजयानंद पटधर श्री विजय सौभाग्य सूरीश्वरो । श्री विजयलक्ष्मी सूरि पभणे सयल संघ जय करो। यह कृति विविध पूजा संग्रह और चैत्य आदि संझाय भाग ३ तथा अन्यत्र से प्रकाशित है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002093
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1999
Total Pages326
LanguageHindi, MaruGurjar
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size11 MB
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