________________
१८४
की है। इनके अंत में लिखा है
सिंदुर प्रकाशभिध शास्त्रस्यानेक संगतार्थस्य बालावबोध कर पाठक राजशीलेन । ३२३
इसके गद्य का नमूना अनुपलब्ध है।
हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
राजेन्द्र विजय
ये तपागच्छीय भगवान के शिष्य थे। आपने २१ प्रकारी पूजा सं० १८६६ कार्तिक १३, खंभात में की । ३२४
इसी वर्ष राजेन्द्र विजय द्वारा ही लिखी गई इसकी प्रतिलिपि भी प्राप्त है। राजेन्द्रसागर
आप की गद्य रचना 'वेताल पचीसी' प्रसिद्ध जनकथा विक्रम वैताल पर आधारित है। यह रचना सं० १८१४ फाल्गुन कृष्ण ११, बीकानेर को हुई। इसका प्रारंभ इस प्रकार है।
अंत
प्रणमुं सरसति पाय, बले वीनायक विनवुं,
बुद्धि दे सिद्धि दिवाय, सनमुख थाये सद्गुरु |
उस समय बीकानेर में राठौड़ कर्ण और उनके राजकुमार अनूपसिंह का शासन था। यह संस्कृत मूल रचना का हिन्दी भाषान्तर है ।
कथा का प्रारंभ इस प्रकार हुआ है, अथ कथा प्रबंध
दक्षिण देश ने प्रस्यांनपुर नगर, तीहां विक्रमादित्य उजेणी नगरी
नो राजा मुख्य प्रधान मुंहता सहित सभा मांहि बइठो, केहवो के सोहा ।
इसके गद्य के बीच बीच में सुभाषित दोहे पर्याप्त मात्रा में दिए गये हैं, यथा
घोड़ा हाथी सार सहू कपडो काष्ठ पाषाण, महाराज नारी पुरुष इन बहु अंतर जांणि ।
कथा हुई मनभावनी ऊपनी बीकानेर, चाहेगा जन सांभलई, मिलमिल रचितुं फेर । कौतुक कुँवर अनुपसिंह केरे लिखें बनाई बात । पचबीसी बेताल नी भाषा कही बहु भाय । ३२५
इसकी एक प्रति इण्डिया अफिस लाइब्रेरी में है। शायद यह प्रति भी इन्हीं की
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org
Jain Education International