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मोहन - रंगविजय
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> देवेन्द्र कीर्ति > क्षेमेन्द्र कीर्ति > नरेन्द्र कीत्रि > विजय कीर्ति > चन्द्र कीर्ति कीर्ति राम के शिष्य थे । ३०६ इनके रास का उद्धरण या अन्य कोई विवरण नहीं मिला। रंगविजय
आप तपागच्ठ के प्रसिद्ध आचार्य विजयानंद सूरि की परंपरा में विजयदेव सूरि > लब्धिविजय > रत्नविजय मानविजय > विवेकविजय और अमृतविजय के शिष्य थे। इनके गुरु अमृतविजय भी कवि थे। उनकी प्रेरणा से इन्होंने भी अध्यात्म और विनय के बहुतेरे सुंदर पदों की रचना की है। वैष्णव कवियों ने जैसे राधा और कृष्ण को लक्ष करके भक्ति और शृंगार की रचनायें की वैसे ही इन्होंने राजमती और नेमिनाथ के विषय में बहुत से श्रृंगार भाव के पद लिखे हैं। उदाहरणार्थ एक पद प्रस्तुत है—
आवन देरी या होरी |
चंदमुखी राजुल सौं जंयत, ल्याउ मनाय पकर बरजोरी। फागुन वे दिन दूर नहीं अब, कहा सोचत तू जिय में भोरी । बाँह पकरि राहा जो कहावूं छाडू ना मुख मांहै रोरी । सज संगार सकल जदु वनिता, अबीर गुलाल लेइ भर झोरी । नेमीसर संग खेलौं खेलौना, चंग मृदंग डफ ताल टकोरी । है प्रभु समदविजय कै छौना, तू है उग्रसेन की छोरी । रंग कहै अमृतपद दायक, चिरजीवहु या जुग जुग जोरी । ३०७
सं० १८४९ में इन्होंने खड़ी बोली में एक ग़जल लिखी जिसमें अहमदाबाद नगर का वर्णन किया गया है। हिन्दी प्रदेश में उस समय खड़ी बोली काव्य भाषा नहीं बन पाई थी। इसलिए इसका भाषा - इतिहास की दृष्टि से महत्त्व है। आपकी अन्य रचनाओं का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत है
शंखेश्वर पार्श्वनाथ पंचकल्याण गर्भित प्रतिष्ठा कल्प स्तवन (सं० १८४९) इसी वर्ष फाल्गुन शुक्ल पंचमी शुक्रवार को सवाईचंद- खुशालचंद ने भरुच में पार्श्वनाथ की प्रतिष्ठा कराई थी; उसी प्रसंग में उसका स्तवन करते हुए कवि ने प्रतिष्ठा की संपूर्ण विधि का वर्णन किया है। इसका प्रारंभ देखें
स्वस्ति श्रीदायक विभु जगनायक जिनचंद, मोह तिमिर ने चूरवा, प्रगट्यो परम दिणंद | पिता-पुत्र उद्यम करी खर्ची द्रव्य उदार, मूर्ति संखेसर पार्श्वनी, प्रगट करी मनोहार ।
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