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________________ १७२ हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास पूर्वक नहीं कहा जा सकता कि इसके रचयिता यही माल मुनि हैं। मालसिंह आपके गुरु लोकागच्छीय ऋषि करमसी थे। इन्होंने 'कलावती चोढालियुं' की रचना सं० १८३५ श्रावण शुक्ल पंचमी को पूर्ण की। यह रचना प्रकाशित है।२९९ मेघ इनकी गुरु परंपरा और इतिवृत्त आदि अज्ञात है किन्तु इनकी दो कृतियों 'मेघ विनोद' और चतुर्विशति स्तुति की प्रतियाँ प्राप्त हैं। ये रचनायें सं० १८३५ के आसपास रचित हैं। इनका विवरण आगे दिया जा रहा है। 'मेघ विनोद' का प्रारंभ इस प्रकार हुआ है सकल जगत आधार प्रभु, सकल जगत सिरताज, पाप विदारण सुख करण, जय-जय श्री जिनराज। ताहिको में समरि कै, करूं ग्रंथ सुखकार, मेघ विनोद नाम रस, सकल जीव उपकार। इन पंक्तियों से स्पष्ट होता है कि लेखक जैन धर्म और जिनराज में आस्था रखता है। गुरु की वंदना है किन्तु नाम-पता नहीं है, यथा चरण जुगल गुरु के नमुं, समरु सारद माय; पुनः गणेश पद नित नमुं, दिन दिन मंगल थाय। कवि अपार जग में भये, कीने ग्रंथ अपार, तिन ग्रंथन का मत लही, कहत मेघ सुखकार। 'चतुर्विंशति स्तुति' (सं० १८३५ फाल्गुन शुक्ल १३ मंगलवार, फगवाड़ा) इसकी अंतिम पंक्तियाँ इस प्रकार हैं तनुजो राम सुसिद्धि निसपति मास फागण सुदि कही, तीनदस तिथि भूमि को सुत नगर फगुआ कर लही। कर जोड़ के मुनि मेघ भाखे शरण राखू जिनेश्वरं; सब भविक जन मिल करो. पूजा, जपो नित परमेश्वरं।३०० इसमें रचनाकाल स्पष्ट नहीं है। तनुजा का अर्थ समझ में नहीं आता। मेघराज Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002093
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1999
Total Pages326
LanguageHindi, MaruGurjar
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size11 MB
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