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हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास विहार किया, धर्मोपदेश किया और सं० १८३४ में गूढ़ा में चौमासा के समय स्वर्गवासी हुए। यह रचना ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह में संकलित 'जिन लाभ सूरि गीतानि' शीर्षक पाँच रचनाओं में शीर्षस्थ है।२९३ माणिक्य सागर
__ आप तपागच्छीय कल्याण सागर सूरि के भ्राता क्षीर सागर के शिष्य थे। आपने 'कल्याण सागर सूरि निर्वाण रास' (सं० १८१७ फाल्गुन कृष्ण ५, बुधवार) की रचना की है। उसका आदि इस प्रकार है
प्रणमुं प्रेमे वीरना पद पंकज सुखदाय; गुरु गण केरी संकथा करवा मुज अभिप्राय, तपगच्छ केरो राजिओ विधापूर सनूर,
सोभागी सिर सहेरो कल्याणसागर सूरि। रचनाकाल- संवत अष्टादश सत्तर वरसे भलो, मास फाल्गुण तणो कृष्णपक्ष;
पंचमी चैत्र बुधवासरे गुरु गणी, गावतां हरखीया सम्य दक्षा अंत- तास पद सवेना पुन्य थी में लही, जास सुदृष्टि थी सुगुरु गाया;
माणिक्यसागर कहें गावता गुरु तणा, ऋद्धिवर सिद्ध नव निद्धि पाया। प्रीति थी जे नर नारि गुरु गुण सुणे जपे नाम नित चित्त सांचे; तास घर गाजती मदवती गजघटा, अतुल मंगल तणो मेह मांचे।२९४
यह रचना 'जैन ऐतिहासिक गुर्जर काव्य संचय' में पृ० २५४ से २६४ पर प्रकाशित है। माणेक विजय
ये तपागच्दीय गुलाबविजय के शिष्य थे। इन्होंने 'स्थूलिभद्र कोशा संबंध रसबेलि' (१७ ढाल, सं० १८६७, ५ मोई) की रचना की है उसका आदि निम्नवत् है
श्री पार्श्वदेव ने प्रणमीये, सरस्वति तुं समरथ;
स्थूलिभद्र थूणतां थका, आपे सरस अरथ। गुरु- कल्पतरु पूरे मनकामि, रतन चिंतामणि पांमि;
श्री गुलाब विबुध सुपसाइ पामि, माणिक्य महोदय कामि। अंत में रचनाकाल इन पंक्तियों में दर्शाया गया है
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