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हि०जै०सा० की राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि
प्रधान हो गया था जो बाद में साम्राज्य के पतन का कारण हो गया। इन साम्राज्यों की कालान्तर में प्रशासनिक व्यवस्था और कार्यकुशलता में लगातार गिरावट आती गई । कानून और व्यवस्था नाम की चीज खत्म हो गई। उच्छृखंल सामंतो ने खुलेआम केन्द्रीय सत्ता की अवहेलना की। केन्द्रीय सरकार आये दिन के युद्धों से दिवालिया होती गई। उधर प्रान्तों से भूराजस्व प्राप्त करना असंभव होता जा रहा था। साम्राज्य की फौजी शक्ति कमजोर पड़ गई। सैनिकों को मासिक वेतन नहीं मिलता था। वे लूटपाट करके जा का उत्पीड़न करते थे। भूखी असहाय जनता का रक्षक कोई नही था। सभी भक्षक थे चाहे वे बाहरी आक्रमणकारी हों या भीतरी राजे, नवाब और सामंत हों। जनता में असुरक्षा, असंतोष, अराजकता की भावना बढ़ती गई । 'कोउ नृप होय हमै का हानी' वाली उक्ति-— जन-जन की स्थायी मनोवृत्ति बन गई। इसलिए कोई सम्राट राजा या सामंत जीते अथवा हारे, जनता को कोई अफसोस नहीं होता था । विदेशी आक्रमणकारी यदा कदा लूटते थे, प्रायः नगरों और बड़े-बड़े कस्बों में लूटपाट करते थे पर देशी रजवाड़े, नवाब, सामंत और उनके सिपाही तो गॉव-गॉव के एक-एक व्यक्ति का शोषण उत्पीड़न करते थे । जनता बधुंवा गुलाम हो गई थी। जन-मन में दासता की मनोवृति पूर्णतया भर गई थी। फिर वे स्वतंत्र देश और राजा की कल्पना कैसे करते ? जब प्रबल जन शक्ति उदासीन हो, राज्य के विरोध में हो तो कोई सत्ता अधिक समय तक कैसे टिक सकती है। इसलिए दोनों साम्राज्यों का विघटन हो गया और कम्पनी की शासन सत्ता स्थापित हो गई। मराठों के विरोध में अनेक देशी रजवाड़े हो गये थे इसीलिए पानीपत के तृतीय युद्ध में वे अहमदशाह अब्दाली से बुरी तरह पराजित हो गये। इस मौके का लाभ कम्पनी सरकार को मिला। मराठा सामंतों में महाद जी सिन्धिया महत्त्वपूर्ण व्यक्ति अवश्य था, उसने १७८४ में दिल्ली सम्राट् शाह आलम को वश में किया और पेशवा को पराभूत किया किन्तु अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ता, वह एक चिनगारी की तरह चमक कर समय के अन्धकार में विलीन हो गया।
तत्कालीन अन्य देशी रियासतें
पतनशील मुगल साम्राज्य और दुर्बल केन्द्रीय राजसत्ता का लाभ उठाकर अनेक अर्द्धस्वतंत्र-स्वतंत्र देशी रियासतें स्थापित हुईं। इनमें बंगाल, अवध और हैदराबाद की नवाबी प्रमुख थी। दक्षिणभारत में हैदरअली और उसके बेटे टीपू ने मैसूर रियासत की स्थापना भी। दिल्ली के आस-पास राजस्थान के राजपूत रजवाड़े, बंगस पठान, रूहेले और सिक्खों ने भी दिल्लीश्वर को उपेक्षादृष्टि से देखने लगे। गरज यह कि केन्द्रीय राजसत्ता विघटित होकर अनेक स्थानीय लघुशक्ति केन्द्रों में बिखर गई । वे आपस में स्वार्थवश टकराते रहे और तत्कालीन इतिहास पर गलत प्रभाव डालत रहे। इनमें से कुछ की चर्चा
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