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________________ ११४ हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास यह रचना सोमचंद 'धारसी अंजार द्वारा और हीरालाल हंसराज द्वारा प्रकाशित है। द्यानत दिगंबर संप्रदाय के श्रावक, विद्वान, प्रसिद्ध कवि और अच्छे लेखक थे। इनकी एक रचना 'तत्वसार' भाषा का प्रारम्भ इस प्रकार हुआ है आदि सुखि अनंत सुखि सिद्ध-सिद्ध भगवान निज परताप तरताप विन जगदर्पण जग आंन। घांण दहिन विधि काठि दहि, अमल सूध लहि भाव। परम ज्योति पद वंदि कै, कहूं तत्त्व को राव। अंत- द्यानत तत्व जू सात, सार सकल में आत्मा; ग्रंथ अर्थ यह भ्रात, देखो जानौ अनुभवौ। १८९ दिनकर सागर आप प्रधानसागर के शिष्य थे। आपने 'चौबीसी'की रचना सं० १८५९ पौष शुक्ल १५, राणकपुर में की। इसकी कवि द्वारा लिखित हस्तलिपि उपलब्ध है। आपकी दूसरी रचना 'मानतुंगी स्तव' (१७ गाथा, सं० १८७९ माग, कृष्ण ३) की भी प्रतिअभय पोशाल में है। इनकी तीसरी कृति २४ जिन चरित्र दोहा वंध में रचित है (सं० १८७९ मधु, शुक्ल ५, गोठवाड़। जै० गु० क० के प्रथम संस्करण में मानतुंग स्तव का रचनाकाल सं० १७७९ छपा था१९° पर यह छापे की भूल लगती है। ये १९वीं वि० के कवि हैं। दीप लोकागच्छीय धर्म सिंह के शिष्य थे। 'सुदर्शन सेठ रास' और वीर स्वामी रास नामक दो रचनाओं का विवरण मिला है। उनके आधार पर ये लोका० रूप > जीव > वरसिंह > सजाणसिंह > जसवंत > रूपसिंह > दामोदर > धनराज > क्षेमकर्ण > धर्मसिंह के शिष्य थे। सुदर्शन सेठ रास (छप्पयदंछ में सं० १८३६ से पूर्व रचित है) इसकी प्रारम्भ की पंक्तियाँ वंदु श्री जिन महावीर धीर संजम व्रतधारी, उपगारी अणगारसकल भविजन सुखकारी। नर नार शीलधारी निपुण, होय सुखी पातिक हरे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002093
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1999
Total Pages326
LanguageHindi, MaruGurjar
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size11 MB
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