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हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
पर राजस्थानी का प्रभाव स्वभावतः अधिक है । १८३ कस्तूरचंद कासलीवाल ने इसका रचनाकाल सं० १८४७ बताया है । १८४ इसीलिए सुबुद्धि प्रकाश का यही रचनाकाल यहाँ स्वीकार किया गया है। इसकी प्रति जैन पंचायती मंदिर करौली में सुरक्षित है। प्रति के आधार पर डॉ० कासलीवाल ने रचनाकाल दिया है इसलिए उसे ही मान लिया गया है।
थोभण (जैनेतर)
आपने सं० १८४४ से पूर्व ' बारमास' की रचना की, जिसकी कुछ पंक्तियाँ उदाहरणार्थ प्रस्तुत है
दयामेरु
कारतीक मासे मेहलि चाल्या कंत रे बाला जी । प्रोतडली तोडि आएया अंत मारा बाला जी । प्रीऊ जी माहरा स्यूं चाल्या परदेस रे बाला जी । मंदिरीयामां हूं बाले वेस मारा वाला जी ।
कवि विट्ठल का भक्त प्रतीत होता है यथा—
है—
सुख सज्या मां नंदनालाल बाला जी, वीट्ठलवर हसी लडावो लाड मोरा वाला जी । जन्म जन्मना चरणो राखो वास रे वाला जी। थोभण ना सांमी पूरो आस मारा वाला जी । १८५
आप अमरविजय के प्रशिष्य थे। इनकी गुरुपरम्परा देसाई ने इस प्रकार बताई
खरतरगच्छ के संत उदयतिलक > अमरविजय > ज्ञानवर्धन > कुशलकल्याणं के शिष्य थे; आपने 'ब्रह्मसेन चौपाई' की रचना सं० १८८० ज्येष्ठ शुक्ल १०, बुधवार को भावनगर में की। १८६ यही सूचना नाहटा ने भी दी है । १८७ दोनों विद्वानों ने ग्रन्थ विवरण उद्धरण नहीं दिया है।
दर्शनसागर ( उपाध्याय) -
अंचलगच्छ के आचार्य उदयसागर सूरि के शिष्य थे। आपकी पुस्तक 'आदिनाथ जी नो रास' ( ६ खण्ड १६७ ढाल ६०८८ कड़ी, सं० १८२४ माह
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