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जिनोदयसूरि - जीतमल ||
पुण्य उपर सुणज्यो कथा सुणता अचिरज थाइ।
हंसराज बछराज नृप, हुआ पुन्य पसाइ।१४३
इसकी भाषा गुर्जर प्रधान मरुगुर्जर है। कथा का लालित्य है पर काव्य लालित्य ढूढ़ना पडता है। जीतमल | -
आप अमरसिंह जी म० की परंपराके प्रभावशाली आचार्य थे। इनका जन्म सं० १८२६ में सुजानमल की पत्नी सुभद्रा देवी की कुक्षि से रामपुरा (कोटा) में हुआ था। आपने सं० १८३४ में दीक्षा ली और विद्याभ्यास किया। आप कवि और चित्रकार के साथ ही सुंदर और निपुण लिपिकर्ता थे। आप हाथ (दोनों) और पैरों से भी लिखते थे। कहा जाता है कि इन्होंने तेरह हजार ग्रंथों की लिपि की थी। अढ़ाईद्वीप,मासनाडो, स्वर्ग, नरक, परदेशी राजा का स्वर्गीय दृश्य आदि चित्र आपकी बारीक चित्रकला के सुंदर नमूने हैं। 'अणविधियांमोती' इनकी कविताओं का सुंदर संग्रह है जिसका संपादन देवेन्द्र मुनि शास्त्री ने किया है। जीतमल || -
यह तेरापंथी भीषम जी > भारीमल्ल जी > रायचंद के शिष्य थे। इनका जन्म सं० १८६० में और मृत्यु सं० १९३८ में जयपुर मे हुई। आचार्य पद पर प्रतिष्ठित होने के बाद जयाचार्य आपका नाम हो गया था, आपकी रचना 'चौबीसी, (१९००सं०, आसो कृष्ण ४) का आदि
वलि प्रणमुं गुणवंत गुरू, भिक्षु भरत मझार,
दान दया न्याय झाण ने, लीधो मारग सार। गुरूपरंपरा- भारोमल पट झलकता, तीजे पट ऋषि राय,
प्रणमुं मन वस काय करी पांचू अंग नमाय। ईस सिद्ध साधु प्रणमी करी, ऋषभादिक चौबीस,
स्तवन करूं प्रमोद करी, जय जशकर जगदीस। इसके अंत में महावीर का स्तवन है। यथा
चरम जिनेन्द्र चौबीसमा जिन अध हणवा महावीर, निकट तप वरध्यान कर प्रभु, पाया भवजल तीर।
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