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मरुगुर्जर हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास ऋषिविजय (वाचक) -- तपागच्छीय विजयप्रभसूरि के शिष्य थे। आपने जिन पंचकल्याणक स्तव १० ढाल सं० १७५४ औरंगाबाद में लिखा। इसका आदि निम्नवत् है
सारद मात नमी करो, प्रणमी सद्गुरु पाय, पंचकल्याणक जिनतणा, गणतां सिव सुख थाय । च्यवन, जनम, दिक्षादिवस, नांण सिद्धि गतिनाम,
पंचकल्याणक जांणयो, अ जिनना अभिराम । रचनाकाल, सतर चोपने प्रेम सुंरेलाल, कर्मा चोमासो रंग रे,
श्री अवरंगाबाद मां रे लाल, जिहां जिनधर उत्तंग रे । गुरु श्री विजयप्रभ सूरी जी रे लाल, श्री जिनसासन जयकार रे,
वाचक ऋद्धिविजय नमे रे लाल, श्री जिनगुरु सुखकार रे। १८ नातरा संज्झाय का आदि पहिला ते समरूं रे पास पंचासरुरे।'
इनके नाम के साथ दी गई रचना 'रोहिणी रास' अन्य ऋद्धिविजय की है जो विजयाणंद के शिष्य और विजयराज के शिष्य थे। इसलिए उसे छोड़ दिया गया है। श्री देसाई ने ऋद्धिविजय कृत वरदत्त गुणमंजरी रास ( १७०३ कार्तिक शुक्ल ३ गुरुवार खंभात ) का उल्लेख किया है । परन्तु यह रचना इनके शिष्य ऋषभसागर की हो सकती है । अतः उसे भी छोड़ना उचित लगा है।
ऋद्धिहर्ष- आपकी रचना नेमिकुमार धमाल (५ कड़ी) छोटी है । इसका आदि और अंत दिया जा रहा है। आदि
गढ़ गिरनार की तलहटी खेलइ श्री नेमिकुमार, एक दिसि सायर जल भर्यउ दिसि दूजो पर गिरनार ।
विचि सहसांवन सोभतउ तिण मांहे खेलई नेमिकूमार । अंत नेम हथीहथ नां तजइ समझावइ जोरे जगन्नाथ,
सिद्धिहरष मन हुई सुखी बात सांभलि सिवा देवी मात ।' आपकी एक रचना 'नेमिराजीमती रास' सं० १७७९ का उल्लेख उदयचन्द कोठारी ने भी अपनी सूची में किया है।४ १. मोहनलाल दलीचन्द देसाई-जैन गुर्जर कवियो भाग २ पृ० ५२३ २४, __भाग ३ पृ० १४३६-३७ (प्र० सं०) और भाग ५ पृ० १३३-१३४ (न० सं०)। २. वही भाग ३ पृ० ११३७ (प्र०सं०) ३. वही भाग ४ पृ० ४१८-१९ और भाग ५ पृ० ४२१ (न० सं०) । ४. उत्तमचन्द कोठारी-पूची प्राप्तिस्थान-पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी।
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