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मरुगुर्जर हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास सुनयपोष हतदोष, मोषमुख सिवपद दायक, गुन मनिकोष सुघोष, रोषहर तोष विधायक । एक अनंत सरूप संतवंदित अभिनंदित, निज सुभाव पर भाव भावि भासेइ अमंदित । अविदित चरित्र बिलसित अमित, सर्वमिलित अविलिप्त तन, अविचलित कलित निजरस ललित,
जय जिन दलित सु कलित धन ।' उपदेश दोहा शतक की रचना १७२५ कार्तिक शुक्ल पंचमी को हुई । इसमें कवि ने संत कवियों की भाँति कहा है तीर्थस्थान, मुंडन तप सब आत्मशुद्धि के बिना व्यर्थ है, यथा ---
सिव साधन कौं जानियै अनुभौ बड़ो इलाज, गढ़ सलिल भंजन करत सरत न एको नाम । कोटि वरस लौं धोइये सठसठ तीरथ नीर,
सदा अपावन ही रहत, मदिरा कुंभ शरीर । हितोपदेश बावनी या अक्षर बावनी सं० १७५७ इसमें अकारादि क्रम से ५८ सवैया है, एक उदाहरण देखेंमन मेरो उमग्यौ जिन गुण गायबो,
टालत है गर्भवास सिवपुर दीयै ।
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हेमराज भणइ मुनि सुरागें सजन जन
मन मेरो उमग्यौ जिन गुण गायबो । हिन्दी भक्तामर इनकी प्रसिद्ध रचना है। इसका प्रारंभ इस प्रकार है
आदि पुरुष आदि जिन, आदि सुबुधि करनार ।
धरम धुरंधर परम 'गुरु नमौ आदि करतार । इसकी प्रशंसा नाथूराम प्रेमी ने की है। इसका खूब प्रचार हुआ। मूल संस्कृत में भक्तामर शार्दूल विक्रीडित छन्द में है किन्तु हेमराज ने चौपाई, छप्पय, दोहों में लिखा है । कुछ उदाहरण दिए जा रहे हैं
१. प्रेमसागर जैन-हिन्दी जैन भक्तिकाव्य और कवि, पृ० २१६ ।
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