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मरुगुर्जर हिन्दी जैन साहित्य का वृहद् इतिहास इसमें अहमदाबाद को अहमदनगर और राजनगर नामों से भी सम्बोधित किया गया है। इस चौपाई में सर्वगाथा १४६, श्लोक संख्या १७० है । इसके प्रारम्भ में लिखा है--
श्री वृद्ध तपागच्छ गणधरु श्री रत्नकीर्ति सूरीराय,
चरीय भणुंमनहेत सु, आणंद अंगि न माय । अंतिम कलश में भी गुरु का सादर स्मरण किया गया है, यथा--
तपगच्छ नायक सुखदायक श्री भुवनकीर्ति सुरीश्वरी, तसु वंसभूषण विगतदूषण, श्री रत्नकीर्ति सूरी पटधरी। दिन दिन गाजी अधिक दिवाजी तास शिष्य सोहामंणा, इमि वदी वांणी सुमति आंणी घरि घरि रंग वधामणा ।'
सुमतिविमल -आपका एक गीत 'जिनसुख सूरि गीतम्' ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह में संकलित है। इस गीत से पता चलता है कि जिनसुखरि रूपचंद और रतना दे के पुत्र थे। आपने जैसलमेर में 'चैत्य परिपाटी' आदि कई रचनायें की हैं जिनका विवरण यथास्थान दिया जा चुका है। इस गीत के आदि की पंक्तियाँ निम्नाङ्कित हैं--
सहु मिलि सूहव आवउ मन रली, गावी गुरु गच्छराय; विधि सु वंदौ जिनसुख सूरिनइ, जसु प्रणम्यां सुख थाय । इसके अन्त की पंक्तियाँ भी उद्धृत की जा रही हैंसंघ मनोरथ पूरण सुरतरु, जिनसुख सूरि महंत,
इणि परि सुमतिविमल असीत दइ, पूखइमन नी रे खंति । इस गीत में कुछ ९ छन्द हैं । इसमें जिनसुख सूरि की वंदना सरल भाषा शैली में भक्तिभाव पूर्वक की गई है ।
सुमतिसेन---ये क्षेम शाखान्तर्गत रत्ननंदि के शिष्य थे। इन्होंने १. मोहनलाल दलीचंद देसाई--जैन गुर्जर कवियो, भाग २, पृ० ३८३-३८४
(प्र०सं०) और भाग ५, पृ० ३२-३३ (न० सं०)। २, ऐतिहासिक जैन काव्यसंग्रह-जिनसुखसूरिगीतम ।
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