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________________ सुमतिविजय ५२५ सुमतिविजप-ये वृद्धतपागच्छीय रत्नकीर्ति के शिष्य थे । विक्रम सं० १२८५ में जगच्चंद सूरि ने उदयपुर के पास अपनी घोर तपस्या के बलपर 'तपा' विरुद प्राप्त किया था। इनके दो शिष्यों में विनयचंद्र सूरि की परंपरा को वृद्धतपा और देवेन्द्रसरि की परंपरा को लघतपा कहा गया। इन्होंने अपने गुरु के स्तवन स्वरूप 'रत्नकीति सरि चौपाई' (सं० १७४९ आषाढ़ शुक्ल सप्तमी बुधवार) लिखी। इस चौपाई द्वारा रत्नकीर्ति के सम्बन्ध में प्रामाणिक सूचनायें मिलती हैं। उनके पिता का नाम पुजासाह और माता का नाम प्रेमल दे था। भुवनकीति के आशीर्वाद से दम्पत्ति को पांच पुत्र हुए। उनमें सबसे छोटा राम जी नामक शिशु ही रत्नकीर्ति हुआ, इसका जन्म सं० १६७९ भाद्र कृष्ण २, भौमवार को हुआ था। सं० १६८६ वैशाख शुक्ल पंचमी गुरुवार को भवनकीर्ति से दीक्षित होने के बाद दीक्षानाम रत्नकीर्ति पडा। सं० १७३४ में ५५ वर्ष की अवस्था प्राप्त कर वे स्वर्गवासी हो गये। उनके चार शिष्यों में से गुणसामर उनके पट्ट पर बैठे। इसमें ९ ढाल है, कवि ने लिखा है --- श्री रतनकीति सूरि स्तव्या सु ढाल नवें मनोहार, सीस सुमतिविजय सदा सु, पय प्रणमि बारंबार । इसके मंगलाचरण का आदि इस प्रकार है -- संभव जिनवर विनवं मांगु एक ज गान, दुरगति दुख दूरि करी, आपजो निरमल ज्ञान । इसके पश्चात् अहमदनगर (अहमदाबाद) का वर्णन किया गया है, जहाँ यह ग्रन्थ लिखा गया, रचनाकाल इस प्रकार बताया गया है संवत संयम भेद ते सु० वर्षे भुवन निधि सार; आषाढ़ सुकल सप्तमी सु० हस्त नक्षत्र बुधवार ।' अहमदाबाद के बारे में कवि ने लिखा है दक्षण भारत मांहे दीपतु, गुर्जर देस गुणवंतो रे; असी सहस ग्रामे करी, अधिक अधिक सोभंतो रे। गढ़ मढ़ मंदिर महल सु, श्री अहमदनगर विराजि रे; भूमण्डल मां ओहy कोट, नहि को दिवाजी रे । १. सम्पादक मुनिजिनविजग--जैन ऐतिहासिक गुर्जर काव्यसंचयपृ० २-१४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002092
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages618
LanguageHindi, MaruGurjar
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size23 MB
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