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मरुगुर्जर हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
सं० १८०० के अतिरिक्त अनेक स्तवनादि संवतोल्लेख रहित भी ज्ञात हुए हैं। इनमें से कतिपय कृतियों का विवरण-उद्धरण प्रस्तुत किया जा रहा है।
सुप्रतिष्ठ चौपइ (सं० १७९४ मागसर रवि, मरोठ) इसमें कवि ने अपनी गुरु परम्परा का उल्लेख इस प्रकार किया है
श्री खरतरगच्छनी परंपरा श्री जिणचंद मुनीस, उदयतिलक पाठक जग परगडा चारु विचक्षण-सीस । अमर भमर सम गरुपद कमलनं अहनिसि सेवत रंग,
गुरुदेव अनुग्रह थी जसगाइयो साधुमहागुण चंग। रचनाकाल ---संवत सत्तरे से चोराणवे, रविदिन मगसिर मास ।
चढी प्रमाण भली या चोपइ, हऔ ज्ञान प्रकास । सुदर्शन चौपइ (सं० १७९८ भाद्र शु० ५) आदि-श्री सिद्धारथ सुत नमुं वर्द्धमान शिववास,
काम कुंभ मण कल्पतरु इहनी पूरण आस ।' रचनाकाल -संवर सत्तर अठाणवा वरषे, भादव सुकल मझारि ।
तिथि पंचम कवि सिद्ध वृद्धि योगे, पूरण भई कथा री। इसमें आठ सर्ग हैंआठम सरग करि रास रच्यो, रस लहे अउ सिद्ध वरारी। सरधा सेती सुणहि सूणावे, सुख पावे नर नारी। पंच परमेष्ठी जे समरेसी मंगलिक आचारी। ते नर अमर मुगति सुखविलसे जैनधर्म उपकारी।
इसमें कवि ने अपना नाम केवल 'अमर' दिया है। सुप्रतिष्ठ चौपइ में भी अमर नाम ही दिया है लेकिन सुदर्शन चौपइ की निम्न पंक्ति में अमरगणि भी लिखा है, यथा
तसु विनती अमरगणि पभणे, गुरुदेव पाय दया री।
कीड़ी थी जिण कुंजर कीयो, अघट ही घाट घटा री। १. अरचन्द नाहटा---- परंपरा पृ० १०३-१०४ २. श्री देसाई-जैन गुर्जर कविओ भाग २ पृ. ५८२ (प्रथम संस्करण) ३. वही भाग ३ पृ० १४५७ (प्रथम संस्करण)
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