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________________ संतोषविजय ५०७ कहा है। संतोषविजय --(संतोषी) आप तपागच्छीय विजयदेवसूरि के शिष्य थे। आपने सं० १७०१ के लगभग 'सीमंधर स्तवन' नामक ४० कड़ी की रचना की है। इसका आदि इस प्रकार है-- सुणि सुणि सरसती भगवति, ताहरी जगत विख्यात, कवि जननी कीरति वधे, तिम तू करजे मात । मंदिर स्वामि विदेह मां, वेठां करे वषांण, वंदना माहरि तिहां जइ, कहेज्यो चंदा भाण । इसकी अंतिम पंक्तियाँ भी नीचे उद्धृत की जा रही हैं-- श्री तपगछ नो नायक सुंदर श्री विजयदेव पटोधारी रे, कीरति जेहनी जग मां झाझी, बोले नर ने नारी रे । श्री गुरु वयण सुणी बुद्धि सारु, सीमंधर जिन गायो, संतीषी कहे देव गुरु धर्म पूरब पुन्ये पायो रे । यह रचना चैत्य आदि संञ्झाय भाग ३, पृ० ४२८ पर प्रकाशित है। संघसोम--ये तपागच्छ के सूरि श्री विशालसोम के शिष्य थे। इनकी एक 'चौबीसी' प्राप्त है। यह चौबीसी सं० १७०३ भाद्र शुक्ल चतुर्थी को लिखी गई थी। रचनाकाल कवि ने इन पंक्तियों में प्रकट किया है-- संवत सत्तर विडोत्तरा शुभ मास, भाद्रवा सुदि चउथी तवीय वीर उल्हास । कवि संघसोम कहइ पहुंचाई मन आस, आ भवि परभवि मुझ दीऊ तुम्हां चरणेइ वास । इसके आदि और अन्त की पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं-- आदि-- सरसती पय प्रणमु, मांगु वचन विलास, गुण गावा जिनना मुझ मन अधिक उल्लास । १. मोहनलाल दलीचन्द देसाई-जैन गुर्जर कवियो, भाग २, पृ० २२८ और भाग ३, पृ० १२३४ (प्र०सं०)। २. वही भाग ३, पृ० ३२०-२१ (प्र०सं०) और भाग ४, १० ६५-६६ (न०सं०)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002092
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages618
LanguageHindi, MaruGurjar
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size23 MB
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