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शिरोमणि दास शासन था। नागरी प्रचारिणी सभा की खोज रिपोर्ट में धर्मसार की समाप्ति आगरा में बताई गई है। इसमें सकलकीति के प्रभाव का उल्लेख भी नहीं है। अपने दूसरे ग्रंथ 'सिद्धांत शिरोमणि' में उन्होंने जैनधर्म के दोनों सम्प्रदायों-दिगंबर और श्वेतांबर को खूब खरीखोटी सुनाई है, पर यहजैनमत की अस्वीकृति का आधार नहीं बनता। कबीर दोनों धर्मों-हिन्द, मुसलमान को खरीखोटी सुनाते रहे पर वे धर्म विहीन व्यक्ति नहीं थे। इनकी रचनायें सम्यक्त्व प्रधान हैं। इन्हें बनारसीदास के अध्यात्मवादी परिवार में परिगणित किया जा सकता है। ये आगरा के रहने वाले थे और आगरा इस परिवार का केन्द्र था। इनकी दोनों कृतियों का परिचय प्रस्तुत किया जा रहा है।
सिद्धांत शिरोमणि --मध्यकाल में धर्म के नाम पर बढ़ते शिथिलाचार का कुप्रभाव जैनों पर भी पड़ा था। शिरोमणिदास इसके लिए दोनों सम्प्रदायों के अनुयायियों को कबीर की शैली में फटकारते हैं और धर्माडंबर का विरोध करते हुए लिखते हैंनहीं दिगंबर नहीं शेतधार, :
ये जती नहीं भव भमैं अपार, यह सुन के कछु लीजै सार,
उतरै चाही जो भव के पार । सिद्धांत शिरोमणि सास्त्र को नाम,
कीनौ समकित राखिबे के काम । जो कोउ पढ़ सुने नरनारि,
समकित लहै सुद्ध अपार । धर्मसार (सं० १७३२ वैशाख शुक्ल ३) का रचनाकाल इन पंक्तियों में है--
संवत १७३२ वैशाख मास उज्ज्वल पनि दीस,
तृतीय अक्षय शनी समेत, भविजन को मंगल सुखदेव । एकाध प्रतियों में पाठांतर है और रचनाकाल सं० १७५१ बताया गया है, यथा
१. नागरी प्रचारिणी सभा काशी की १५वीं त्रैवार्षिक खोज रिपोर्ट, विवरण
संख्या २००।
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