SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 507
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मरुगुर्जर हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास इसमें गुरु परम्परा इस प्रकार बताई गई है-- श्रीविजयदेव सूरि गच्छ दीपायो, श्री विजयसिंह गणरायो रे, कनकविजय बुध प्रणमी गातां, वीरविजय जय थायो रे। इससे लगता है कि विजयसिंह सूरि इनके प्रगुरु थे। रचनाकाल निम्नांकित पंक्तियों में बताया गया है वसु अंबर मुनि शशि संवच्छर, आसो दिन दीवाली रे; माट वंदिर म्हां थुणिउ सुणतां, होइ मंगलीक माली रे ।' वोरजी--(वीरचन्द) ये पार्श्वचन्द सूरि>समरचंद सूरि>राजचंद सूरि>देवचन्द सूरि के शिष्य थे। इनकी रचना कर्मविपाक अथवा जंबूपृच्छाराज (१३ ढाल सं० १७२८, पाटण) का प्रारम्भ इस प्रकार है-- सकल पदारथ सर्वदा, प्रणमु श्यामल पास; नामिये तेहने उठि नित्य, परमानंद प्रकाश । इसमें सोहम् स्वामी और जंबू स्वामी का प्रश्नोत्तर है। वे प्रश्न करते हैं -- कहो भगवन् धनवंत सुखी, शे कर्मे जीव थाय; दारिद्री निर्धन दुखी, कुण कर्मे कहेवाय । इसी प्रश्न के उत्तर में सम्पूर्ण रचना की गई है। इसमें वही गुरुपरम्परा दी गई है जो पहले लिखी गई है। रचनाकाल इस प्रकार बताया गया है-- संवत सतर अठावीसे, पाटण नगर मोझारी, जंबू पृच्छा रची में रंगे, वीरजी मुनि सुखकारी। इसे भीमसिंह माणेक ने प्रकाशित किया है । इसकी एकाध प्रतियों में लेखक का नाम वीरचंद भी मिलता है, यथा-- १. मोहनलाल दलीचन्द देसाई--जैन गुर्जर कवियो, भाग ३, पृ० ११८६-८७ (न०सं०) और भाग ४, पृ० १६४-१६५ (न० सं०)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002092
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages618
LanguageHindi, MaruGurjar
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy