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वीरविजय
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पश्चात् यह रचना की गई थी । विजयसिंह सूरि के सम्बन्ध में इस स्वाध्याय से पर्याप्त जानकारी प्राप्त होती है । वे मेड़ता निवासी नथमल ओसवाल की पत्नी नायक दे की कुक्षि से उत्पन्न पांच पुत्रोंजेसो, जेठो, केशव, कर्मचन्द और कपूरचन्द में चौथे पुत्र थे । इनके माता-पिता ने अपने अन्तिम तीन पुत्रों के साथ सं० १६५४ में विजयसेन सूरि से दीक्षा ली थी । कर्मचन्द ही बाद में विजयसिंह सूरि हुए । इनका जन्म सं० १६४४ और दीक्षा सं० १६५४ में हुई इन्हें पण्डित पद १६७०, वाचक पद विजयदेव सूरि द्वारा सं० १६७३ पाटण में और आचार्य पद सं० १६८१ वैशाख शुक्ल ६ को ईडर में प्राप्त हुआ । सं० १७०८ में दीव की तरफ चातुर्मास के लिए जाने को तैयार हुए किन्तु अहमदाबाद के संघ द्वारा आग्रह करने पर वहीं चातुर्मास किया और बाद में वहीं सं० १७०९ में स्वर्गस्थ हुए।" इसका आदि इस प्रकार है
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समरु सरसति सामिनी, आपो अविचल वाणी, श्री विजयसिंह सूरी तणो जी, बोलीस हूं निरवाणि । माहरा गुरुजी तु मनमोहन वेलि ।
रचनाकाल
संवत सतर नवोतरइ रे, अहमदपुर मझारि, सहु चोमासुं ओकण रे, श्रावक समकित धारो रे । अंतिम पंक्तियाँ इस प्रकार हैं
गुरु पद पंकज भमरलो रे, आणी मन उल्लास, वीरविजय मुनि वीनवइ रे, पूरो संघनी आसो रे । सुणि सुणि साहिबा, अक करुं अरदासो रे,
कां छोड्या निरासो रे, सुणि सुणि साहिबा सुणि । * बंभणवाडा महावीर स्तवन / सं० १७०८ दिवाली माट वंदर) आपकी दूसरी रचना है जिसका आदि इस प्रकार है
मांगु श्री गुरुनइ नमी, सारद दिउ श्रुततेज, चोवीसमों जिनवर स्तवुं, जिम आणी ऊलट हेज |
१. जैन ऐतिहासिक गुर्जर काव्य संचय, पृ० १८१-१८२ । २. मोहनलाल दलीचन्द देसाई - जैन गुर्जर कवियो, भाग २, पृ० १३८ - १३९, भाग ३, पृ० ११८६-८७ (प्र०सं० ) और भाग ४, पृ० १६४-१६५ ।
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