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विबुध विजय
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बुद्धि के पेंच से ऐसी बुझौवल पंक्तियाँ लिख देते हैं कि उनका अर्थ सामान्य लोगों की समझ से परे होता है, यथापर्वत सुतापती को पहेलो ले जो,
ससरा तणो वली त्रीजो, शनी सरताज को पहेलो घर जो,
पं. विबुध विजय अ गाम मां कीओ रे।' अब इस ग्राम का नाम ढूंढ निकालना किसी पण्डित के बलबूते का काम है। सामान्य जन नहीं बता सकते कि कौन सा रचना स्थान है।
विवेकविजय--ये तपागच्छीय वीरविजय के शिष्य थे। इन्होंने सं० १७३५ आसो, शुक्ल १० गुरुवार को शाहपुर (मालवा) में 'मृगांकलेखा रास' चार खण्डों में पूर्ण किया। इसकी प्रारम्भिक पंक्तियां निम्नांकित हैं
उदय आदिसर नाम थी, शांत सदा सुखकार; नेमनाथ नवनिद्ध दीपे, पार्श्व प्रेम दातार ।
श्री गुरु पाय प्रसाद थी चरित्र करुं सुप्रसिद्ध,
मृगांक लेखा निर्मल सदा में उद्यम कीद्ध । इसमें शील का महत्व समझाया गया है, मृगाकलेखा चरित्र उसका उदाहरण है --
शील सदा सुखदाय छे, सील समो नहीं ओ कोय;
सीले सुप मृगांक लेह्यो, सुणजो सहु सविवेक । गुरुपरम्परा में सुधर्म के पश्चात् वीरविजय को पूज्यभाव से स्मरण किया गया है । रचनाकाल इस प्रकार बताया गया है--
संवत सतर त्रीषा वरसे, विजयादसमी गुरुवार रे,
साहपुर सोभीत मालवे, रास रच्यो जयकार रे । १. मोहनलाल दलीचन्द देसाई-जैन गुर्जर कवियो, भाग ३, पृ. १४४६-४९
(प्र०सं०) और भाग ५, पृ० ३१७-३१९ (न०सं०)। २, अगरचन्द नाहटा--परंपरा, पृ० १११।
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