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मरुगुर्जर हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास प्रणमी पास जिणेसर अ, समरि सरसती माय,
निज गुरु ना आधार थीरे, गायस्यु तपगछरायो रे । इस स्वाध्याय में विजयप्रभ सूरि के व्यक्तित्व एवं कृतित्व का लेखा-जोखा संक्षिप्त रूप से वर्णित है। विजयप्रभ सूरि कच्छ प्रान्त के मनोहरपुर ग्राम में सं० १६७७ माह सुदी ११ को पैदा हुए थे। इनके पिता का नाम साह शिवभण और माता का नाम भाणी था। सं० १६८८ में नौ वर्ष की अवस्था में विजयदेव सूरि ने दीक्षित कर नाम विजयप्रभ रखा। तत्पश्चात् शिक्षाभ्यास, विहार, बिम्बप्रतिष्ठा आदि द्वारा पर्याप्त प्रसिद्ध हए और कच्छ लौटने पर राजा ने सम्मानित किया। सं० १७४९ में शरीर त्याग किया और पट्टपर विजयरत्न आसीन हुए। यह रचना जैन ऐतिहासिक गुर्जर काव्य संचय में प्रकाशित है। इसका अंतिम कलश नमूने के तौर पर प्रस्तुत है--
श्री वीर सासन जगनभासन, सुध परंपर पटधरो, गुरु नाम जंपीइ कर्म खंपीइ, विमलसार संयम धरो। तपगच्छ दीपक कुमति जीपक, विजयप्रभ गुरु गणधरो,
तस चरण सेवक विमल विजये, गायो जयमंगल करो।' आपकी दूसरी रचना 'अष्टापद समेत शिखर स्तवन' (५५ कड़ी) में भी रचनाकाल नहीं है किन्तु यह रचना श्री विजयरत्न के सूरित्वकाल की है अर्थात् सं० १७५० के बाद की। इसका आभास इन पंक्तियों से मिलता है--
श्री विजयरत्न सूरि गछनायक वार,
चौसठमें पारे श्री पुजता रै। इसका प्रारम्भिक छंद निम्नवत् हैअगारो आगलि ऊलग लाइये, पाय लागे ते पण्डित थाये; मोखागामिनइ मन शुद्ध गाईं, ते तो पुरुषोत्तम पुरुष कहवाये ।
१. जैन ऐतिहासिक गुर्जर काव्यसंचय पृ० १८५ । २. मोहनलाल दलीचन्द देसाई-जैन गुर्जर कवियो, भाग २, पृ० ४१७-१८,
भाग ३ पृ० १३६७ (प्र०सं०) और वही भाग ५, पृ० ११४-११५ (न०सं०)।
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