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________________ विनयचन्द संवत सतरह बावने रे, श्री पाटणपुर मांहि, फागण सुदि पांचिम दिने रे, गुरुवार उच्छाहि । यह रचना विनयचंद कृति कुसुमांजलि में प्रकाशित है। वीशी (सं० १७५४ विजयादसमी, राजनगर) सम्बन्धित पंक्तियाँ देखें सतरे से चौपन वर्षे, राजनगर में रंगेजी, वीसी गीत विजयदसमी दिन, किया ऊलट धरि अंगे जी। गुरुपरंपरा गच्छपति श्री जिनचंद्र सूरीदा, हर्षनिधान उवझाया जी, ज्ञानतिलक गुरु ने सुपसाये, विनयचंद्र गुण गावे जी।' यह भी ‘विनयचंद कृति कुसुमांजलि' में प्रकाशित है। शत्रुजय तीर्थ वृहत् स्तव (२० कड़ी, सं० १७५५ पौष १०) हा रे मोरा लाल, सिद्धाचल सोहामणउ; ऊचो अतिहि उत्तंग मोरा लाल, सिद्ध वधू वरवा भणी, मानुं उन्नत करि चंग- मोरालाल । रचनाकाल-'संवत सतर पंचावनइ' बताया गया है। ११ अंगनी स्वाध्याय' (सं० १७५५ श्रावण कृष्ण १०, अहमदाबाद) में भी ज्ञानतिलक को गुरु बताया गया है । यह रचना भी कुसुमांजलि में प्रकाशित है। चौवीसी (सं० १७५५ या ५७, राजनगर) अंत में रचनाकाल इस प्रकार है 'संवत सतरे पंचावन (पाठांतर-सत्तावन) वर्षे' विजयादसमी मन हर्षे, मिलता है। इसमें आदि जिन से चौबीसवें जिन महावीर तक की स्तुति है। यह भी उसी संग्रह में प्रकाशित है । १. मोहनलाल दलीचन्द देसाई-जैन गुर्जर कवियो, भाग ५, पृ० १२७-१२८ (न०सं०)। २. वही पृ० १२९ (न०सं०)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002092
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages618
LanguageHindi, MaruGurjar
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size23 MB
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