________________
४५५
वरसिंह यह लोकागच्छीय श्रावकस्य साथं 'पंचप्रतिक्रमण सूत्र' मुम्बई से सन् १९४३ में छप चुकी है। इसका आदि देखें--
पास जिनेसर प्रणमी पाय, सद्गुरु दाम तणो सुपसाय,
नवतत्व नो कहूँ विच्यार, सांभलयो चित्त देइ नरनार । अंतिम पंक्तियाँ भी प्रस्तुत हैंतास सासण मांहि सोभता,
दांम मुनीवर पंडित हता, तास शिष्य ऋषि वरसिंध कह्या,
से बोल सिद्धांत थकी मै ग्रह्या ।'
वल्लभकुशल-तपागच्छीय धीरकुशल>गजकुशल>प्रीतिकुशल > वृद्धिकुशल > सुन्दरकुशल इनके गुरु थे। इन्होंने सं० १७७५ कार्तिक कृष्ण १३, रविवार को जूनागढ़ में 'श्रेणिक रास' की रचना की। इस रचना से ऐसा लगता है कि वद्धिकुशल और प्रीतिकुशल दोनों गुरुभाई थे; कवि के गुरु सुन्दरकुशल वृद्धिकुशल के शिष्य थे। कवि ने लिखा है --
तस शिष्य सुंदरकुशल सुहाया, इम वल्लभ कुशल सुख पाया बे, संवत १७ पंचोत्तरा वर्षे, काती बदी मन हरषे बे।
इसमें श्रेणिक (सम्राट् बिंबसार) की चर्चा है पर उसके ऐतिहासिक पक्ष की छानबीन करने पर परिणाम बहुत उत्साहवर्द्धक नहीं मिलता। इनकी दूसरी रचना भी जैनाचार्य हेमचंद्र गणि के व्यक्तित्व पर आधारित है पर श्रद्धा पक्ष ने इतिहास को यहाँ भी दबा रखा है। हेमचंद्र गणि रास जैन ऐतिहासिक गुर्जर रास संचय के पृष्ठ २६५ से २८४ पर प्रकाशित है। इस रास के प्रथम में आदि जिणंद, श्रुतदेवी, सद्गुरु, साधु जैनसंघ और जैनधर्म की वंदना है, तत्पश्चात् वल्लभकुशल लिखते हैं--
मुनीशनां गुण कहिस्युं अभिराम, रास रचिय रलियामणो, जिम सीजे सब काम ।
१. मोहनलाल दलीचन्द देसाई--जैन गुर्जर कवियो, भाग ३, पृ० १४१४
(प्र०सं०) और भाग ५, पृ० २५९ (न०सं०)।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org