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लक्ष्मीविनय
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महामंत्रीश्वर रास (४ खंड, सं० १७६०, फागुन शुक्ल पंचमी सोमवार भरोट नगर) का आरंभ इन पंक्तियों से किया है
परतख सुरतरु सारिखो, प्रणमु पास जिणंद, सुरनर किन्नर सासता, प्रणमे पय अरविंद ।
गुरु परंपरा का उल्लेख करते हुए कवि ने सोहं स्वामी की परंपरा में वैरी शाखा के कोटिक गण के खरतरगच्छीय आचार्य जिनचंद्रसूरि की सागरचंद्र शाखा के ज्ञानप्रमोद से लेकर ऊपर बताए गये गुरुओं की श्रृंखला में अभयमाणिक्य तक का नमन-स्मरण किया है । इसका रचनाकाल इस प्रकार बताया गया है
संवत नभ रस मुनि शशि (१७६०) रे भरोट नगर मझार फाल्गुन शुदनी पंचमी रे, तुरंगीपति दिनवार । अ आवश्यक सूत्र थी रे, कीधो चरित्र उल्लास, ओछो अधिको जे कह्यो रे, मिच्छा दुक्कड़ तास ।
इस रचना के अंत में कवि ने लिखा है इसके पढ़ने से लोगों की मनोकामनाएं पूर्ण होंगी, यथा
वीछडिया साजन मिले रे, पूगे मननी आस, चार बुद्धि उपजे अंग में रे, पामे वली जसवास ।
यह कृति भीमशी माणक द्वारा प्रकाशित की जा चुकी है ।" इन्होंने गद्य में भुवनदीपक बालावबोध सं० १७६७ में लिखा है । यह ज्योतिष संबंधी ग्रंथ है ।
इन रचनाओं के अलावा 'ढुंढक मतोत्पत्ति रास' को भी इनकी कृति बताया गया था किन्तु यह अन्य किसी कवि की रचना है । आपने पद्य और गद्य में रचनायें करके अपनी बहुमुखी प्रतिभा को प्रमाणित किया है ।
लक्ष्मीविमल -- तपागच्छीय विबुधविमल सूरि 7 ज्ञानविमल सूरि > सोभागसागर 7 सुमति सागर सूरि 7 ऋद्धि विमल > कीर्ति विमल के शिष्य थे । इनकी एक 'बीशी' और एक 'चौबीसी' के अलावा एक गद्य रचना का विवरण उपलब्ध है । उपर्युक्त रचनाओं का परिचय १. मोहनलाल दलीचन्द देसाई —— जैन गुर्जर कवियो, भाग ३, पृ० १४०६ और पृ० ४५६-४५८ (प्र०सं) तथा भाग ५, पृ० १९५-१९६ ( न०सं० ) । २८
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