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अजयराज पाटणी
शिवरमणी (१७ पद्य) में तीर्थंकर रूपी दूल्हा भव्यजनों की बारात के साथ पंचभगति रूपी ससुराल में पहुँचकर भक्तिरूपी शिवरमणी से विवाह करते हैं, तदुपरांत वर-वधू ज्ञानसरोवर में मिलकर तृप्त होते हैं। __ चरखा चउपइ (११ पद्य) इसमें कवि ने ऐसा चरखा चलाने का उपदेश दिया है जिसमें शील और संयम रूपी खूटे, शुभध्यान रूपी ताड़ियाँ लगे हों। इसमें बारह व्रतों का रूपक बाँधा गया है। चरखा चउपइ की कुछ पंक्तियाँ उदाहरणार्थ प्रस्तुत हैं
श्री जिनवर वंदू गुणगाय, चतुर नारि चर्षे लाय । राग दोष विगत परिहरै, चतुर नारि चर्षे चित धरै। प्रथम मूल चरषा को जाणि, देव कर्म गुरु निस्चै आणि । दोष अणरा रहत सूं देव, गुरु निरग्रंथ तिण करिसेव । २
शिवरमणी से भी एक नमूना लें। शिवरमणी ने आत्मा का मन मुग्ध कर लिया है, यथा
शिवरमणी मन मोहीयो जी जेठ रहे जी लुभाय । ज्ञान सरोवर मैं छवि गये जी, आवागमण निवारि । आठ गुणा मंडित हुवा जी, सुख को तहाँ नहीं छोर ।
प्रभु गुण गाया तुम तणां जी अजैराज कर जोड़ि। आपकी अधिकांश रचनायें भक्ति और अध्यात्म से परिपूर्ण हैं। जिन गीत (१० पद्य) में कवि भगवान को पुकारता है
थाको तारण विरद सुन्यो तुम सरण आइयो जी, थाको दरसण देषित मैं प्रभु पुनि उपाइयो जी। प्रभ जी शिवरमणी कौ कंत, परमपद ध्याइयो जी।
तातें अब मोहि पार उतारि, दया चित लाइयो जी। १. राजस्थान का जैन साहित्य पृ० २१९ २. डा० प्रेमासागर जैन ---हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि पृ० ३८५ और __ डा० लालचंद-जैन कवियों के ब्रजभाषा प्र० काव्यों का अध्ययन
१० ८४ ३. डा० प्रेमसागद जैन- --हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि पृ० ३५७-३६४ ४. वहीं पृ० ३५९
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