SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 432
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४१५ (वाचक) रामविजय इसकी अन्तिम पंक्तियां निम्नांकित है श्री अजिन वीर्य जिन वीर्य अनंतू प्रकट्यूं क्षापक भावे रे, सहज समाधिनी लीला विलसे, ते प्रभु एक सभावे रे । सद्गुरु सुमति विजय कवि सांनिधि, जगि लहीइं जस वादो रे, वाचक रामविजय कहे जे प्रभु ध्याने अमृत आस्वादो रे।' इन तीन बड़े रामविजय नामधारी लेखकों के अलावा इन्हीं लोगों के समकालीन एक रामविजय और हो गये हैं। इस प्रकार १८वीं शताब्दी में दोनों गच्छों में मिलाकर कुल चार रामविजयों का उल्लेख और विवरण-उद्धरण मिलता है। इन लोगों ने पर्याप्त साहित्य की रचना की है और जैन साहित्य का संवर्द्धन किया है। आगे चतुर्थ रामविजय का संक्षिप्त परिचय दिया जा रहा है। रामविजय--आपके गुरु तपागच्छीय कनकविजय थे। इन्होंने 'विजयदेव सूरि निर्वाण रास' (२८ कड़ी) सं० १७१२ आसो २, शंदेर में पूर्ण की। इसके प्रारम्भ की पंक्तियाँ आगे दी जा रही हैं सकल जनमन रंजनी रे, सरस यो वर सार, श्री विजयदेव सरि तणा रे, गुण गातां जयकार, रे जंगम सुरतरु रचनाकाल - संवत १७ सत्तर आसो बारोतरइ वीजइ रच्यूं निर्वाण, रही रानेर चौमासु सुहंकरु, श्री संघनई कल्याण । इसमें गुरुपरंपरा इस प्रकार बताई गई है-- इय पूरण पुन्य पुन्यावद्य प्राणी श्री विजयदेव सूरि गुण नीलऊ। मयकंद चंद गोखीर सरीखो जास जगि जस निरमलउ । तस पट्टदीपक कुमति जीपक श्री विजयप्रभ चिरंजयो, कनकविजय कवि राम जंपइ, वंदत गुरु आणंद थयो । १. मोहनलाल दलीचन्द देसाई- जैन गुर्जर कवियो, भाग २, पृ० ५४६-५५२, भाग ३, पृ० १४४१-४३ तथा १६४०-४१ (प्र०सं०) और भाग ५, पु० २०२-२०८ (न०सं०)। २. मोहनलाल दलीचन्द देसाई-जैन गुर्जर कवियो, भाग ३, पृ० १५२३ (प्र०सं०) और वही भाग ४, पृ० २४९ (न०सं०)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002092
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1997
Total Pages618
LanguageHindi, MaruGurjar
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy