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मरुगुर्जर हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास कुलध्वजकुमार रास के अनुसार इनकी गुरुपरम्परा में युगप्रधान जिनचन्द्र के पश्चात् धर्मनिधान, धर्मकीर्ति, विद्यासार और धर्मसोम का नाम बतलाया है। परन्तु यह अस्पष्ट है कि राजसार के गुरु विद्यासार हैं अथवा धर्मसोम ? सम्बन्धित पंक्तियाँ इस प्रकार हैं---
धर्म कीरति धर्मे करीरे, विविध विचार प्रधान, तासु शिष्य ने गुरु माहरा रे, वाचक विद्यासार ।
धर्मसोम बहुश्रुत धरु रे. जयवंता जयकार । कुलध्वजकुमार रास की रचना सं० १७०४, आसो शुक्ल १५, रविवार को हाजी खानडेरा में हुई, यह १७ ढाल २५३ कड़ी की रचना है। रचनाकाल एवं स्थान इस प्रकार उल्लिखित है--
संवत सागर नभ मुनि शशि समें (१७०४) अह कीयो अधिकार, आस पनिम आदित वासरे रे, सुगतां मे सुखकार । हाजीखान डेरा हरष सुं रे, चउपी कीधी वाह, राजसार मुनि रंगइ करीरे, अधिके मन उच्छाह ।
स्वयं कवि ने इसे चउपी (चौपाई) कहा है जबकि नाहटा और देसाई दोनों इसे रास कहते हैं, लगता है कि इस समय तक आते-आते रास चौपाई में कोई अन्तर व्यावहारिक स्तर पर नहीं रह गया था। इसमें शील का महत्व व्यक्त करने के लिए कुलध्वजकुमार का आख्यान दृष्टान्त रूप से प्रस्तुत किया गया है। कवि ने लिखा हैसीले संपति संपजे, भला लहे सुखभोग;
कुमर कुलध्वज जिम लह्या, सील तणे संयोग । इस कृति का मंगलाचरण निम्न पंक्तियों से प्रारम्भ हुआ--
पारसनाथ प्रगट प्रभ, अलवेसर आधार, गोड़ीपुर में गाजतो, जपतां हुवे जयकार। शारद वलि समरी करी, जोतिरूप जगि मांहि,
कवियण कइ सुखसिद्धि करी, पणमी परम उच्छाह । यह रचना जिनरतन सूरि के समय की गई थी--
वर्तमान जिनरतन सूरीसर रे, राजे धरि मनरंग,
चउपी कीओ मेलि चुप सु रे, सुणतां हुवे शुभ संग ।' १. मोहनलाल दलीचन्द देसाई-जैन गुर्जर कवियो, भाग २, पृ० १६९-१७१
(प्र०सं०) और वही भाग ४, पृ० १४२-१४३ (न०सं०) ।
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