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मरुगुर्जर हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास अन्त-- मुझ मति सारु में करी रे, चोपइ अह रसाल,
वैरीसिंह कुमार नी रे, वावला चंदन वालो रे।'
यशोनन्द-ये तपागच्छ के साधु गुणानन्द के शिष्य थे। इन्होंने नवकार मंत्र का माहात्म्य दर्शित करने के लिए 'राजसिंह कुमार रास' की रचना सं० १७२६ आशो शुक्ल २, मंगलवार को बादर में की। यह कवि की प्रथम रचना है, यथा
प्रथम अभ्यास अ माहरो, पिण मम करयो उपहास रे,
नूतन चंद्र तणी परि, कवि देज्यो मुझ स्याबास रे । कवि सहृदयों से शाबासी की अपेक्षा रखता है। इसमें नवकार मन्त्र की महिमा का वर्णन करता हुआ कवि कहता है--
जिम दधि मथतां नीसरा, माखण पिंड सरूप,
तिम चउदह पूर मांहि थी, अह जू मंत्र अनूप । इसका रचनाकाल इस प्रकार बताया गया है
संवत सत्तर छवीसमें, करी बादर चउमास रे,
श्री शांति जिन पसाउले, रच्यो राजसिंह कुमार रास रे।। गुरु वन्दना करता हुआ कवि साहित्यिक शब्दावली में कहता है--
कनक कमल दल पाखड़ी, निरमल गंगानीर, भवोदधि तारण तरण गुरु, सागर पर गंभीर शासन तास शोभाकर, श्री गुणानंद गुरुराज रे,
तस पद पंकज मधुव्रत इम जसोनंद कहइ आज रे । इसके आदि और अन्त के छंद आगे प्रस्तुत किए जा रहे हैं, आदि- पास जिणेसर पाय नमी, चोवीसमो जिणंद,
अलिय विघन दूरिय हरइ, आपे परमानंद । अन्त-- रास रसिक राजसिंह नो वली मोटो श्री नवकार रे,
भणे गणे जे साँभले तस घरि जयजयकार रे । १. मोहनलाल दलीचन्द देसाई-जैन गुर्जर कवियो, भाग ३, पृ० १३९५-९६
(प्र०सं०) और भाग ५, पृ० १९७-१९१ (प्र०सं०) । २. वही भाग ४, पृ० ३७०-७१ (न०सं०) ।
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